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604 बबन्ध कमला देवी मूर्धजान्मधुघातिनः । आदर्श दर्शयामास सावित्री स्वर्णभूषितम् ।। ४८ ।। रतिशच्यौ चामरे च वीजयन्त्यौ स्थिते तदा । छत्रं दधार सा देवी भारती भक्तिसंयुता । पादुके प्रददौ भद्रा गङ्गा गङ्गपितुस्तदा । ४९ । निधाय पादौ वरपादुकाद्वये ययौ प्रश्न्नार्तिहरो हरिः स्वयम् । याभ्यां पुरा पावनतां गता मुनेः शापेन् चाश्मत्वमुपागृताऽला ।। ५० ।। पाटुकाभ्यां चरन् भूमिं वरासनगाद्धरिः ।। ५१ ।। ब्रह्मपहली सावित्रीने उत्तम वसद्ध दिया और लक्ष्मीने उख वस्त्र से ७५के शब अभ्ग को बिधिपूर्वक पछा ! पार्वतीने धूपलेच्छर लक्ष्मी के इस्त कमल में दिया और क्रमलादेवी ने मधु दैत्यको मारनेवाले भगवान के खुले हुए सिरके लेशोंको फैलाकर तथा सुगन्धित धूपसे धूपित कर बांध दिया । तत्पश्चात् सावित्री ते सुवर्ण शोभित दर्पण दिखलाया । रति छऔर शसौ वमर ड्रलाती थी । सरस्वती देवी' भक्तिके साथ छद धारण किया और गङ्गा अपने पिता भगवान को खड़ाऊँ दी । मुनिके श्राप से पस्पर बनी हुई अबंखा [क्षहल्या) जिन चरणोंसे पवित्र हुई थी, उन्हीं दोनों चरणोंको खड़ाऊँपर रखकर शरणागत-दे दुःखको छुचुनेवाले भगवान स्वयं पृथ्वीपर पैदल चलकर धरके आसन के पास आये । (५१) श्रीभगवानुवाच ब्रह्मादयः सुरश्रेष्ठा: इन्द्राद्या लोकपालकाः । कश्यपादिमुदिश्रेष्ठाः वसिष्ठादितपोधनाः ।। ५२ ।। सनकाद्याश्च योगीन्द्राः भृग्वाद्याश्च ऋषीश्वराः । अर्यमाद्याश्च पितरस्तुम्बुर्वाद्याश्च गायकाः ।। ५३ ।।