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श्रीभगवान बोले-हे वसिष्ठ! मेरी फुझदेवी कल्याणि शमी है- मेरी भी है और पाण्डवकी भी इस विचार नहीं करना चाहिये। वह् श्रेष्ठ वृक्ष ऋांपर हैं-ऐसा पूछे जानेषर अगस्त्यने न्वा । (७१)

  • अत्रैवोत्तरदिग्भागे तीथे छौमारसंज्ञके ।। ७१ ।।

वर्तते वृक्षराजश्च तत्र गत्वा तमान्वय ' । अगस्त्यवचनैवं तत्र गत्वाऽथ तं दुभम् ।। ७२ ।। कृत्वा प्रदक्षिणं राजन्भगवाँल्यौकिकैः सः । वधश्चक्रे शमीवृक्षं कुलदैवं वृषाकपिः ।। ७३ ।। अगस्त्य बोले-यहां से उत्तर दियामें कुमार मामक तीर्थ में व श्रेष्ठ वृक्ष है-वहां जाकर उसको ले आइये। हे राजन ! अगस्त्यके वधनसे ही वहाँपर जा, प्राकृतसे समान उस वृक्षकी प्रदक्षिण कर भगवान वृषाकपीचे कुलदेवी शमीवृक्षको (७३) श्रौwगवानुवाच शमि ! पापं शमय मे शमि ! शत्रुविवाशिनि ! । अर्जुनस्य धनुर्धात्रि ! रासस्य प्रियदर्शिनि ! ।। ७४ ।। मातर्मे कुरु कल्याणमविध्वेच सुरप्रिये । कलहः सर्वदेवानां राज्ञस्तस्य च नोद्भवेत् ।। ७५ ।। श्रीभगवान बोले-हे शमी ! मेरे पारको नाश करो! हे शढूदोका नाः करनेवाली, अर्जुन के धनुषको रखनेवाली, रामको प्रिय दिखनेवाली शमी माता! विना विघ्न से मेरा कल्याण झरो । हे देवताओंकी प्रेिय ! देवताओं और उस राज्ञामे भुझसे झगड़ा नहीं।