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है08 इति सम्प्राथ्र्य देवेशः कुलदेवीं सुराचिंताम् । अर्चयित्वा विधानेन स्कन्धल्पं महीपते ।। ७६ ।। निकृत्य शिरसा धृत्वा वादित्राणां स्ववेन च । पूरयन्नम्बरं सर्व पुनः स्वस्थावमागतः ।। ७७ ।। हे पृथ्वी के स्वामी ! देवताओं के स्वामी श्रीनिवास देवताओं से पूजी हुई कुलदेवीकी प्रार्थना और विधिसे पूजा कर, एक छोटी शाखाको तोष एवं उसे मस्तकपर रख बाजोंके शब्दसे सम्पूर्ण आकाश को पूरा करते हुए पुनः अपते स्थान को आ गये । (७७) सा कुत्र स्थाप्यते ब्रह्मन् ! वसिष्ठ ! कुलदेविका । वदत्येवं वासुदेवे वसिष्ठं वसुधाधिप ।। ७८ ।। नारदश्चान्तिकं गत्वा प्रोवाच मधुसूदनम् । श्रौन्दोवाच वराहशरणे देव ! स्थाप्यताँ कुलदेवता ।। ७९ ।। यस्मिन्स्थाने स्वक धाम तत्र तां कृष्ण ! पूजयेत् । एवं विद्वन्मतं पूर्वं निस्ति परमेष्ठिता ।। ८० ।। स नारदवचः श्रुत्वा वसिष्ठसहितो हरिः । वराहशरणं गत्वा वच एतत्तमब्रवीत् ।। ८१ ।। श्रीनार बोले-हे देव ! वराह भगवान के घर में कुलदेवी रखी जायी. हे कृष्ण ! जहाँपर अपना धाम है वींपर उस कुल देवौकी पूजा करे-ऐसा विद्वानोंका माना हुआ और आदिमें ब्रह्माझी से भी निश्चित किया गया है । नारदके वचनको सुनकर; वसिष्ठ के साथ वराह के घर में जाकर इरि यह (८५) 78