पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६२९

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प्रतिष्ठाप्य वराहस्य सन्निधौ प्राकृतो यथा । स्वस्थानं पुनरागत्य श्रीनिवासः सतां गतिः ।। मम ।। अभोजनेन गन्तव्यं नारायणपुराह्वयम् । आकाशराजनगरमिति निश्चित्य चेतसि ।। ८९ ।। श्रीनिवास बोले-आपके घर में कुलदेवी की स्थापना शॐगा ! हैं राजन ! इस प्रकार प्रार्थना करनेपर एरात्र श्रीनिवातको वराश्रूपी स्वयं हरि * ऐसा ही हो ” कह दोले 1. प्राकृत मनुष्यों के समान, खुदे हुए सी के कलश में मोतियों भरकर, कपड़ेसे लपेटकर, विधिपूर्वक पूजा करडे, श्रीवराले समीपमैं थापनः कर, अपने स्थानपर पुन : लौटकर, मनमैं निश्चय कर लि-“नारायणपुर नामक आकाशराजके नगरको विना भोजनक्षे शाला होगा ', जाने में लगे हुए शीघ्रतासे ब्रह्मां से बोले । कुबेराच्छूीनिवासकृतः स्वपरिणयार्थमृणादानप्रकार भौनिवास उवाच विधेऽचैव नियुङ्क्ष्वैताँ सेना ते चतुरङ्गिणीम् ।। ९० !! शीघ्र गन्तुं चतुर्वक्त ! नारायणपुरं प्रति । माभूत्कालो वृथैवात्र दूरोऽध्वा ह्यस्य वर्तते ।। ९१ ।। बलं सर्वं वने तात ! वृद्धबालाबलान्वितम्'। शनैर्गच्छतु राजेन्द्र ! मुनिमण्डलपूर्वकम् ।। ९२ ।। कुबेरका श्रीनिवासको ऋण देना श्रीनिवास बोले-हे चारमुखवाले विवि ! नारायणपुरको जाने के लिये अपनी इत चतुरङ्गिणी सेनाको शं घ्र तैयार कीजिये । यहां पर समय व्यर्थ नष्ट न हो, क्योंकि इसका मार्ग दूर है।' हे तात ! हे राजेन्द्र ! मुनिकी मण्डली, वृद्धों, चालकों और स्त्रियों से युक्त सारी सेना देनमें धीरे-धीरे चली । . {९२);