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श्रीनिवास बोले-हे पुत्र ब्रह्मा ! तुम्हारे चन बहुत ही भूल्यवान है, किन्तु कार्य बा कार्य तुप्त नहीं जानते हो, देश और झालको न देखकर सुभ बच्चेके जैसा बोलते हौ । मेरे दश जा द्रव्य जङ्गल और पहाड़में चले गये हैं; इस प्रकारके उपस्थित व्ययको किस प्रकार आँखोंडे देखते . हो ? अब मेरी द्रव्यकी झमीको जॉनकर भी ऐसा कहतेसे काम कैसे होगा? अपते पिताके इस प्रकार कहलेपर लोकपितामह ब्रह्मा भगवान के सामने चूप हो गये । तब हे महाराज ! नीलकण्ठ अपने पिताके पितासे बोले ! [१००) नीलकण्ठ उवाच

  • श्रोतव्यं वचनं तात !

63 बिवाहकंरणे देव ! तथा भवनकर्मणि । प्रारब्धस्यान्तपर्यन्तं यो हि यत्नं समाचरेत् ।। १०१.।। म बालस्थ माधव ! ।। १०० ।। स एव पुण्यवाँल्लोके कीर्तिमेति न संशयः । सम्पाद्याः सर्वसम्भाराः शुभकार्येषु पुष्कलाः ।। १०२ ।। बहुलार्थव्ययेनापि तदभावे त्वृणं चरेत्' । स शम्भुवचनं श्रुत्वा शुम्बरारिपिताऽब्रवीत् ।। १०३ ।। श्राभूगवानुवाच श्रीनीलकण्ठ बोले-हे तास ! हे माधव ! मुझ बालक के वचनको भी सुनना चाहिये । 'हे देव ! किंवा करने तथा घर बनाने में प्रारम्भसे अन्ततक जो यत्न करता है, वी पुण्यवाला संसार में कीर्ति लाभ करता है, इसमें सन्देह नहीं है । बहुत धन व्यय करके भी शुभ कायों में सव सामाग्रियों का पूर्ण रूपसे संग्रह करना न्यायेि, और धनके अभाव में तो ऋण भी लेना चाहिये । सम्भुके इस वचनस्रो सुनकर शैबरासुरके शत्रु प्रद्युम्न) के पिता भगवान बोले । सभायां किमिदं प्रोक्तं पौरुषेण वचः शिव ! । को वाऽद्य ऋणदाताऽस्ति विवाहंस्यास्य पुष्कलम् ।। १०४ ।।