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किया । वैकुण्ठवासी भगवान छे इसी प्रकार कार्य होते है। उस युग का अनुसरण करनेवालीकी अद्भुत विडम्बन (माया) अचिन्त्य, वचन और मनसे अगोचर तथा देवसाठयही हुई । 6१३०) अग्निरुवाच दध्योदनतिलान्ने च परमान्न मधुस्रवम् ।। १५० ।। माषापूपाः गुडापूपाः शाकद्वयमतः परम् । सर्व सुपक्वतां नीतं त्वत्प्रसादेन केशव ! ।। १५१ ।। आमन्त्रय द्विजेन्द्रांश्च सुरानपि मुनीनपि । अग्निवाणीं सभाकध्र्य श्रीनिवासो निरामयः ।। १५२ ।। सम्प्रैषयच्छिवसुतं षण्मुखं मिथिलेश्वर ! । अग्नि बोले-है केशव । आपकी कृपासे दद्वि-थात, तिलके सहित अन्न, मीठे रसवाले उत्तम अन्न, उड़दके पूप (बड़ा], गुड़के पूप और दो थाक, ये सब अच्छे प्रकारसे बनाये जा चुके है । श्रेष्ठ ब्राह्मणों, देवताओं और मुनियों को भी बुलाइये। अग्निके वचनको सुनकर दोषरहित श्रीनिवासचै, हे मिथिलेश जवक ! शिवके पुत्र षट्मुखको उन्हें बुलाचे के लिये भेजा । श्रीशेषाद्रौ कश्यपादिभ्यो ब्रह्मादिकृतोपचारप्रकारः स जगामातिवेगेत जपतोऽग्निपरायणान् ।। १५३ ।। ब्राह्मणान् वेदविदुषः आजुहाव जनाधिप । पाकः सम्पूर्णता प्राप्तः उत्तिष्ठत सुरद्विजाः ।। १५४ ।। इति तेन समाहूताः कश्यपात्रिपुरोगमाः । देवाश्च निकटं तस्य पाकस्थानस्य भेजिरे ।। १५५ ।। (१५२)