पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६४३

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

625 इत्थं कृष्णापेण चक्रे श्रीनृसिंहाय विष्णवे ।। कश्यपाद्यांश्च गोविन्दो 'जुषध्वमि'ति चान्नवीत् ।। १६८ ।। 'भवतां ज्ञानपूर्णानां किमनेनाद्य पूर्णता । भविष्यति महाप्राज्ञाः दयावन्तस्तपोधनाः ।। १६९ ।। दरिद्रं मां च जानन्तस्त्वतं मे रुजलं वधु । बहूकृत्य स्वीकुरुत कृपया नितरामिति ।। १७० ।। प्रार्थनां ब्राह्मणानां तु कृतवान् प्राकृतो यथा । वासुदेववचः श्रुत्वा बाव्यमाहुर्महीसुराः ।। १७१ ।। श्रीभगवान बोले-अहोबित द्वे नृसिंहकी पुजा करके उन्हींका निवेदन करौ । हे राजा । वासुदेवसे इस प्रकार कहे जावेपर ब्रह्मादै मुनियोंकी सम्मतिसे नृथिइक्रो बर्षेण किया । उसके उपरान्त ग्रहों लौर आराध्य देवताओंका आवाहन करके अक्षत, अध्यं, जल, इन्छ, धूप, दीप एवं अनुलेपनसे उनकी पूजा श्री । ब्रह्माते ब्राह्मणोंको भी विधि-पूर्वक पूजा की 1 आनन्दू छै पुर्ण भगवान ले उनकी प्रणाम किया । तत्पन्नाच् आठ दिग्पालोंने पात्र शुद्ध करके परिवेष (परोसन) किया । अग्निके मुखसे परिवेषका पूर्ण धृत्तान्त सुनकर हरिने श्रीनृसिंह विष्णुको इस मन्त्रसे “एको विष्णर्महद्भूतं पृथक् भूलान्धतेकः । तीन लोकान व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुरव्यय: अर्थात-खब जीवोंकी यात्मा, विश्वको धोध करवेवाले, अव्यय , विराट्रूपी विष्णु अपेले ही तीनों लोक में पृथक हुए माभूमें अनेक प्रकारसे अयाप्त होकर भोजन करते है", अर्पण किया और गोविन्द ने कश्यप इत्यादिसे भाजन कीनिये-ऐसा कहा । हे भहाप्राज्ञों ! ज्ञानसे पूर्ण आपका इससे नया पृति होगी ? दयालु तपस्वीगण मुझको दरिद्र जानते हुए, जलके साथ मेरे थोड़े से अन्नको बत बनाकर कृपापूर्वक सदा स्वीकार करें इस प्रकार प्राकृतों जैसा भगवान् वै ब्राह्मणोंकी प्रार्थना की । वासुदेव के वचन सुनकर ब्राह्मणषण डोले । (१७१] तवान्नममृतप्रख्यं मुक्तिमार्गस्य साधनम् । वयं धन्याः कृतार्थाः स्म कुछौ पायाकुले हरे !' ।। १७२ ।।