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47 'निरयाधिकदुःखेन दुःखितः पापकर्मकृत् । त्वामहं शरणं प्राप्तस्त्वं वेत्थ हि मे हितम् ।। १२ ।। इति भूमौ पपाताऽसौ साष्टाङ्ग तस्य सन्निधौ । स्नान करने से पापमुक्त होकर निर्मल चित्त हो ऊपर की अधित्यका पर चिन्तायुक्त तथा शोकपरायण होकर बैठ उसीके समीप गुहा के बीच ध्यान योग में संलग्न, जल्ती हुी अग्नि के समान तेजयुक्त योगीन्द्र सनत्कुमार को देखा तथा--- अदृष्टपूर्व परम पंडित महा योगीन्द्र यह सब कुछ जानते हैं, अत एव इनसे अपने हित की कुछ बात पूछूगा ऐसा सोचकर एवं प्रणाम कर–“मैं अत्यन्त दुःख से दुःखित पापकमीं आपकी ही शरण में उपस्थित हुआ हूँ, आप कृपया हमारे हित की बात बाताइवे' । इत्यादि बातें कहते कहते उनके निकट ही भूमि पर साष्टाङ्ग गिर पडा । (९-१२) सोऽपि ध्यायश्चिरं कालं व्याजहार मिताक्षरम् ।। १३ ।। 'उत्तिष्ठ वत्स ! किं शेषे कृत्वा घोरं पूरा भवे । पापमस्मिन्भवे पक्वे तस्मिन् शोचसि किं वृथा ।। १४ ।। पुरा तु दानविघ्नाश्च प्रत्यूहाश्च प्रतिग्र सुखस्थितानां पीडाश्च त्वया नानाविधाः कृता ।। १५ ।। किञ्चित्किञ्चिद्द्विजेभ्यो वा वित्तं दत्तं न तु त्वया । गृहं क्षेत्रं पशुधन्यं वस्त्रमाभरणं तथा ।। १६ ।। अनाचाराः कृतास्तत्र न त्वाचारलवस्त्वया । प्रणतार्तिहरे विष्णौ प्रणताभीष्टदायिनि ।। १७ ।। न कृतो. भक्तिलेशोऽपि कथं सौख्यं भविष्यति ? । तथाऽप्यस्ति तवोपायो वदामि श्रुणु सादरम्' ।। १८ ।। तदनन्तर उन्होंने भी ध्यान कर कुछ काल के बाद संक्षेप में कहा-हे वत्स, अब उठो, पहले घोर पाप करके अब शेष में इस जन्म में जब पाप परिपक्व हो गया तब क्यों वृथा सोच करते हो ? पहले तुमने प्रतिग्रहादि दानादि में अनेक