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शुकदेव भुनिके किये हुए श्रीनिवासके सत्कार हे पुरुषोत्तम ! मैं अपनी की हुई तपस्थाको सफल भानता हूँ जो है पुरुषश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, रुद्र इत्यादिको को भी अज्ञेय तथा वेदसे ही ज्ञेय उस आ५को मैं आंखों से देखता हूँ। चूंकि मैं पुत्र, मित्र सब लोकपालों, शेष और लक्ष्मीके साथ आपको अपनी भाग्यशाली आंखोंसे देखता हूँ इसलिये मेरा आपके चरणोंकी पूजा करना सफलू है ! हे देवताओं के राजा ! अपने प्रसाद ज्ञे निमित्त मेरी प्रार्थनाका सुने ! हे वासुदेव ! हे देङ्कटाचलझे स्वामी ! कृपा करके भेरे सुरा दिये गये झन्द, भूल फलको सौजन कोखिये । उस भुनि इतना कहे (२१४) श्रीभगवानुवाच 33 श्रुणु तापसशार्दूल ! वचनं साधुसम्मतम् ।। २१५ ।। भवान् कृशो विरागी च ब्रह्मचारी दृढव्रतः । । वयं संसारनिरताः बहवश्चात्र भूक्षुर ।। २१६ ।। अद्येव नगरीं गत्वा राज्ञस्तस्य महात्मनः । तत्रैत्र भोजनं कुर्म इति मे बर्तते भन्नः ।। २१७ ।। बदत्येवं हृषीकेशे व्यासपुत्रोऽभ्यभाषत । 81 श्रीनिवास बोले-हे तपस्दियों में श्रेष्ठ ! साधु पुरुष-सभ्मत इस ववनको सुनिये । आप दुबले, विरागी, ब्रह्मचारी एवं पृढ़ व्रतवाले हैं; और हे ब्राह्मण ! संसार लगे हुए हम लोग यहांपर बहुतसे है । ' आज ही उस महात्मा राजाकी नगरीमें जाकर वहीं भोजन करुंगा-ऐसा मेरा मन है । श्रीनिवासके ऐसा (२१७) श्रीशुक उवाच

  • निष्क्रि-वनोऽहं गोविन्द ! निष्कूिश्चन्जनप्रिय ! ।। २१८ ।।