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अमृताबीजनिचयं भुष्टि:ि प्रविहत्य च । तत्तण्डुलैर्महारज कृतवानन्नमुत्तमम् ।। २२५ ।। बृहतीफलसंयुक्त तिन्त्रिणीरस्संयुद्धम् । स्वान्तरस्थस्य यद्योग्यं पूजासाधनमेव च ।। २२६ ।। तेनैव बाह्यमूर्तेस्तु पूजनं साधुसम्मतम् । इति मत्वार्थतत्त्वज्ञः कृत्वा पादावतेजनम् ।। २२७ ।। पद्मपत्राणि चास्तीर्य तत्रान्नां रससंयुतम् । विनिक्षिप्य विशेषेण कृतसाष्टाङ्गसन्नति ।। २२८ ।। 'भोजनं कुरु गोविन्द ! सदा पुर्णवतोरण' । श्रीनिवास बोले-हे सुनीश्वर ! झापॐ वचन रूी अमृतछे पीतेसे मुझे सृप्ति हो गयी ! और अन्य प्राकृत फल और इससे झुझलौ क्या? तथापि हे मुनि ! आपके ववनको मान भोजन करुंगा ! इस प्रऽोर मुनिको साल्वना देकर, गरुड़से उतरकर, पुल और स्त्रीके साथ कुटी प्रवेश करके कुशसे बने हुए सुन्दर आसन पर बैठ गये। श्रीशुकदेवजी पङ्मतीर्थ में स्नान कर, भक्तिपूर्वक अन्नोंको बनाकर , अमृता (गुरुची) से बीजकी राशिको मुट्ठियों से कूटश्र; हे महाराज ! उसी नावलको तेंतुल रसके साथ मिला कर बृहती (बैंगन) के फलो के साथ उत्तम अन्न बनाया । सबके अन्तर्यामी झात्माञ्जा तृप्तिकें लिये यही यज्ञ तथा पूजा सामात्रि भी है। ऐसे ही दाहरकी मूर्तिकी पृजा करना साधु-सम्मतु है। ऐसा मानकर अर्थशे तत्दको जाननेवाले शुकदेवजीले इनके चरणोंको धौकर, कमलक एत्तोंको विछाकर, उसपर रसके साथ अन्नञ्ज़ो परसकर, विशेषता साष्टाङ्ग प्रणाम करडे कहा-हे सदा पूरे मनोरथवाले गोविन्द ! भोजन कीजिये । . (२८) एवं सम्प्रार्थितो देवः शुकेन परमर्षिणा ।। २२९ ।। तद्भक्तिपारवश्येन भगवानात्मभूः स्वयम् । ऋषीणामुचिताहारन् बुभुजे सर्वभोजनः ।। २३० ।। ।