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838 लक्ष्मीस्तस्याऽऽतया मात्रा सार्ध बकुलमालया ! बुभुजे भुनिनः दत्तं तदन्नभमृतप्रभम् ।। २३१ ।। श्रेष्ठ मुनि शुष्टदेवजीसे इस प्रकार प्रार्थना किये जाने एर स्वयं उत्पन्न ोनेवाले तथा सब कुछ लोजन करनेवाले भगवान, श्रीनिवासदेवने उनकी भवितके वश हो र ऋषियोंले योग्य आहेrरको भोजन किया। उनकी क्षाज्ञा से माता. बकुलाके साथ लक्ष्मीदे मुनि द्वारा दिये गये अमृत अन्नको (२३१) तस्मिन् भुक्तवति श्रीशे ऋषयः कोपपूरिताः । तदा शुकं भीषयन्त समुत्तस्थुर्वरासनात्।। २३२ ।। शापानुग्रहसामाथ्यैसाधनाश्च तपोधनाः । तेषां मतं तु विज्ञाय भगवान् बहिरागतः ।। २३३ ।। फूत्कारं कृतवान् कृष्णः सर्वेषां तृप्तिहेतवे । तन्मुखाम्भोजसम्भूतवायुना तृहेितुना ।। २३४ ।। सुरधेन्वा यथा तृप्तास्तथैव.मुनिपुङ्गवाः । शुक सन्तोषयामासुर्वचनैः स्तोत्रमिश्रितैः ।। २३५ ।। । ' लक्ष्मीपति के भोजन करने पर शाप और कृपा करनेमें सामथ्यं एवं सामाग्रिवाले तपोधन ऋषिगण झोधसे भरकर शुकदेवजीको डराते हुए श्रेष्ठ आसनसे उठ गये। उनके मतको बानकर श्रीनिवास बाहर झाये. और सब किसीछी तृप्ति के लिए कृष्णले “फू' ऐसा शब्द किया। उनके कमल जैसे मुख से निकलेहुए, तृप्तिके फरनेवाले वायु से ही उसी समय कामधेनु जैसे तृप्त हो मुनिगणों ३ स्तोत्रयुप्त वचनों से शुकदैवजी को शीघ्र ही सन्तुष्ठ-किया। (९३५) श्रीनिवासाभिमुखतया स्वपुरात्सरिकर वियन्नृपागमनम् कृत्वाऽष्टम्यां तत्र वासं नवम्यां गुरुवासरे । प्रभातसमये प्राप्ते श्रीनिवासस्त्वरान्वितः ।। २३६ ।।