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840 पद्मावती विशालाक्षी लज्जया परिमोहिता । तां ददर्श जगद्योनिः कमलाक्षीं महीपते ।। २५५ ।। पद्मावतीश्रीनिवासौ वाहलादवरुह्य च । । अन्योन्यालोकनं राजञ्श्चक्राते संस्थितौ ततः ।। २५६ ।। वासुदेवस्य ये भक्तास्तेऽन्योन्यं परिरेभिरे । श्रीनिवा बोले-हे नारद! मेरा जन्म झन्य हैं, क्योंकि आज आकाशराज मेरे घाँधय हुए और उनके साथ भेरा संबंध हो गया । मैंने पहले कौनसा श्रुण्य शिया था ? श्रीनिवास कै ऐसा कहते समय सत्यपराक्रमी राजाने तोरणयुक्त द्वारपर बाकर श्रीनिवास गोविन्दको देखा और वस्त्रों और कपड़ों एवं है राजेन्द्र! गन्ध तैलसे जामाता श्रीनिवासुकी पूजा की । लज्जासे मोहित, बड़े-बड़े स्रवाली तथा सुन्दरी पद्मावती वे अपवै परम पवित्र पतिको देखा ! हे राजन ! जगद्युयोनि श्रीनिवासरे श्री उरु कमल-नयनो पद्मावतीको देखा । हे राजन ! इसी प्रकार पद्मावती और श्रीनिवास वाहनोंसे उतरकर, ठहरकर एक दुसरेको देखने लगे । श्रीनिवास के जो भक्त थे उन्होंने एक दूसरेको आलिगंन किया । (२५६) श्रीनिवासस्यं पद्मावत्या सह दुर्गादर्शनपूर्वकं पुरप्रवेशः नगरद्वारविलयां दुर्गामासाद्य भक्तितः ।। २५७ ।। पद्मावत्यनुगो मायी देवीं त्वा विशेषतः । वरं ययांचे गोविन्दः 'कुरु भार्यामिसा'मिति ।। २५८ ।। पद्मावती विशालाक्षी सावित्रीं वरमुत्तमम् । पतिं कुरु रमानायं श्रीनिवासं जगन्मयम्' ।। २५९ ।। इति वृत्वा च सा देवीं नत्वैरावतमाश्रिता । गरुडस्कन्धमारुढो भगवान् भक्तवत्सलः ।। २६० ।. .