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48 उपद्रव एवं सुख से रहनेवालों को अनन्त पीडा दिया था, तथा ब्राह्मणों को थोडा भी धन नहीं दिया था । घर, क्षेत्र, पशु, धान्य, वस्त्र, आभरण आदि छिनकर सबसे अनाचार ही किया था, आचार तो लेशमात्र भी नहीं किया था । प्रणत जनों के दुःख हरण करनेवाले तथा अभीष्ट देनेवाले श्री महाविष्णु भगवान की भक्ति लेशमात्र भी न किया, तो किस तरह सुख होगा । तथापि एक उपाय तुम्हारे लिये है । मैं कहता हूँ तुभ आदर के साथ सुनो । (१३-१८) इति कर्णामृतं श्रुत्वा वचः प्राह कृताञ्जलिः । दुःखसागरमग्नस्य मम पोत इवागतः ।। १९ ।। आतपक्लिन्नसस्यानां यथा वृष्टिस्तथा भवान् । निधिर्यथा निर्धनानां रोगिणां वा यथा भिषक् ।। २० ।। तथा मया भाग्यलेशादाप्तस्त्वं हि दयानिधिः । रक्ष मां पापिनं घोरं दययेक्षस्व चक्षुषा' ।। २१ ।। इत्युक्तः प्राह योगीन्द्रः कारुण्याब्धितरङ्गितः । महद्रहस्य तत्त्वाथ श्रुणु वत्स ब्रवीमि ते ।। २२ ।। यह कर्णामृत वचन सुनकर वह अञ्जलिबद्ध हो कहने लगा कि आप मुझे दुःख सागर में डूबते हुए के लिये नौका के समान, धूप तथा गरमी से सूखते हुए सस्यों के लिए वृष्टि के समान, निर्धनों के लिए धन-निधि के समान तथा रोगियों के लिए वैद्य के समान, मेरे सौभाग्य के शेष लेश के फल से मिले हैं। हे दयानिधि, मुझ महाघोर पापी की रक्षा कीजिये और अपने कृपा कटाक्ष से एक बार देखिये । यह सुनकर करुणा तरंग में मग्न होकर योगीन्द्र ने कहा-हे वत्स, बडी ही गुप्त तथा परम तत्व मैं तुमसे कहता हूँ । सुनो । सनत्कुमारकथितव्यूहलक्ष्मीमंत्रोडारक्रम सनत्कुमार उवाच दयालोलतरङ्गाक्षी पूर्णचन्द्रनिभानना । जननी सर्वलोकानां महालक्ष्मीर्हरिप्रिया ।। २३ ।। (१९-२२)