भाग्यवाले ब्रह्मादि सब देवता, विश्वामित्र, भरद्वाज, वसिष्ठ, गौतम, भृगुं, अत्रि, पुलस्त्य, वाल्मकि, वैखानस, दुर्वासा, मार्कण्डेय, गालव, दधीचि, यवन, समक और सनन्दन इत्यादि सब बिना पापवाखे, जटाके मुकुट से शोभित शरीरवाले; काले मृगचर्मदाले, तेजसे प्रकाशमानवाले, संसार में सर्वश्रेष्ठमुनिगण कश्यपको छागे कर सभाके मध्यमें बैठे हुए थे । उनके मध्य रत्नमय वस्त्रॉसे संयुक्त श्रीनिवास एवं अञ्जलि बांधे हुए संसारको पितामह ब्रह्मा बैठे हुए थे । उस सभाके द्वारपर आक्षर, सत्यपराक्रम राजा पुरोहितको आगे कर श्रीनिवास के पास आये । आये हुए राजाको देखकर श्रीनिक्षास उठे और आलिङ्गन करके (३०७) श्रीनिवास उवाच भवान् श्रेष्ठतमोऽत्यन्तं वृद्धोऽसि नृपसत्तम ! ।। ३०८ ।। किमर्थमागतोऽसि त्वं मद्गृहं राजसत्तम ! । वसुदानं तु राजेन्द्र समाह्वाने नियोजय' ।। ३०९ ।। वद्त्येवं श्रीनिवासे पुरोहितभाषत । श्रीनिवास बोले-हे राजाओं श्रेष्ठ ! आप सबसे श्रेष्ठ और घृद्ध है, आप हमारे घर किसलिये आये ? हे भहाराज ! बुलानेकेलिये वसुदानको नियुक्त कीजिये । श्रीनिवासुझे ऐसा कहते .समय राजा पुरोहित से बोले । (३०९) वियन्नृपोक्त्या वसिष्ठप्रेरित धरणीकृत श्रीनिवासोपचारः विलम्बः क्रियते कस्मात्पूजां कुरु रमापतेः ।। ३१० ।। स राजवचनं श्रुत्वा धरणीं वाक्यमब्रवीत् । आकाशराजके वचनसे. धरणीदेवीद्वारा श्रीनिव सका पूजन राजा बोले--विलम्ब क्यों शैोता है? श्रीनिवासकी पूजा कीजिये । राजाको वचन सुनकर धरणी से कहा 1. . 83 दसिष्ठले
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