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भूषणैर्भूषिताङ्गस्य कन्यादानमथाकरोत् । कृत्याप्रवरमूचेऽथ गुरुः साक्षाद् बृहस्पतिः ।। ३५० ।। श्रीनिवास बोले-है राजन ! अपने पुत्रको आप से क्या दिया जाना चाहिये । विवाह कभैमें निपुण एवं दानीं आप अवेकों रत्नोंसे जटित खरीरके भूषणोंको दीजिये । श्रीनिवासके इस प्रकार हनेपर राजाने' उनको भूषण दिया । छौ भारका किरीट, उतवे ही की कण्ठी, पुन: उसके आधेके आधीकी एक और कण्ठी एवं सात अनुपभ पदक राजाने दिये । मोतियोंकी भाला, भुजाके उत्तम भूषण, कन्धेतक लटकते हुए मोतियोंसे युक्त कानोंके भूषण, एवं रत्न, माणिक्य, वज्र तथा वैडूर्यसे बने हुए बत्तीव भारते अनुपम कङ्कण राजाने दिया । एक जोड़ा नागमूषण (विजायठ) और बाहुपुर इत्यादि, तथा दासों अंगुलियोंक्रा भूषण बीर मुद्रिका, अनेका रस्तों एवं श्रेष्ठ वजसे युक्त यारह सौ भारके सोनेकें कटिसूत्र एवं पादुका (खड़ाऊँ) राजाने श्रीनिवासको दिया । श्रीनिवासवो साठ भारका भोजन पात्र दिया । उस श्रेष्ठ राजाने जलके छोटे पावके सहित बड़े पात्र और चौंसठ कम्बल दिये । इसके अन्तर भूषण से शोभिस अंगवाले श्रीनिवासजी की कन्यादान किया । कन्याकै प्रदरको साक्षात बृहस्पति गुरु बोछे रहे थे । (३५०) शुरुवसिष्ठकथितवधूवरप्रवरादिकम् बृहस्पतिरुवाच अत्रिगोत्रसमुद्भूतां सुवीरस्य प्रपौत्रिकाम् । सुधर्मणस्तु पौत्रीं च पुत्रीमाकाशभूपतेः ।। ३५१ ।। त्वमङ्गीकुरु गोविन्द ! कन्य कमललोचनाम्' । एवमुक्त महाराजो मुदा रत्नाम्बरं ददौ ।। ३५२ ।। बृहस्पति बोले-हे गोविन्द ! अत्रि गोख में उत्पन्न, सुवीरकी प्रपौत्री, सुधर्मकी पौत्री, आकाशराजकी पुत्री कमल-नयौ कन्याको ग्रण कीजिये । इतना {३५२)