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661 अपूपान् विविधांश्चक्रे सूशाझादिकांस्तथा । घृतकुल्यां क्षीरकुल्यां दधिकुल्यां ततः परम् ।। ३७९ ।। तत उद्धृत्य निःक्षिप्तं बहिर्मुक्तवतां नृणाम् । उच्छिष्टपत्रजालं च पुष्कलान्नादिसंयुतम् ।। ३८० ।। सारमेयगणैः कीर्ण राक्षसानां गणैस्तथा । एवं कोलाहलं चक्रे दिवसांश्चतुरस्तथा ।। ३८१ ।। हासस्तद्ध विनोदेन नित्यमासीच्च मज्जनम् । हे राजेन्द्र! तव प्रशात श्रीनिवास और पद्मावतीके परस्पर एक दूसरेको मज्शन और उदूर्तन (उबटन) हँसी के सा झरजाते हुए सून्दरियोंने स्वच्छ सुगन्ध तैलसे श्रीनिवासको स्नान करवाया ! उस आकाशराजाने थामन्वित होकर मुख्य ब्राह्मणों, देवताओं, स्त्रियों एवं पुरुषोंको यादरसे बहुतभा भोजन दिया । उसके बाद घृतकुल्ली (कुवा), क्षीरङ्कल्ली (कुवां) एवं दधिकुल्ली (कुवां) में नाना प्रकारके अपूप, दाल एवं श:क हत्यादि बनाया । मनुष्योके भोजन किये हुए बहुत अन्नसे संयुक्त उठाकर बाहर फके हुए उच्छिष्ट पत्रजाल (एतरी) कुत्तों और राक्षसों से विरे हुए थे। इस प्रकार चार दिनतक कोलाहल हुआ । वहापर विनोद और हंसीसे नि स्नान होता थः । (३८१) दिवसे पञ्चमे प्राप्ते कृत्वा नाकबलिं तथा ।। ३८२ ।। कलशांश्चतुरो न्यस्य दीपज्वाखाविराजितान् । वधूवरौ प्रतिष्ठाप्य रत्नसिंहासने नृप ।। ३८३ ।। पूजयामास गोविन्दं जामातरमनाभयम् । आकाशारराजो धर्मात्मा क्षीरपातं करे दधत् ।। ३८४ ।। पांधवें दिन नागवल्ली कर, दीपज्वालासे शौमित चार कलशोंका स्थापम कार, रत्नों के सिंहासनपर वरवधूको बैशा, क्षीर पावका वाथ में लेकर, धर्मात्मा (३८४)