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50 द्विमुजा व्यूहलक्ष्मी पद्मासनप्रिया, श्री विष्णु के हृदय मध्य में रहनेवाली सदा भगवान की प्रेयसी महालक्ष्मी देवी की शरण में सर्वतो भावेन अतिशीघ्र चले जाओो । उपरोक्त मन्त्र तथा यह बात कहकर आप अन्तर्धान हो गये और कहीं भी दिखाई न पड़े। (२७-३०) भीतोऽसौ विस्मितश्चैव संतोषपुलकाङ्कितः अद्य मे रजनी व्युष्टा शुभा जन्म च सत्फलम् ।। ३१ ।। इति मन्त्रं शुचिर्भूत्वा जपन्नारुह्य पर्वतम् । तत्र तत्र गिरौ पश्यञ्झरान्पर्वतनिर्गतान् ।। ३२ ।। स्वामिपुष्करिणीं प्राप शनैर्दिष्ट्या महाद्भुताम्। आकाशादवरुह्यात्र स्थितां मन्दाकिनीमिव ।। ३३ ।। विरजामिव पापघ्नीं पुण्यदां पुण्यसेविताम् ।

. अतः बहं ब्राह्मण भयभीत होकर आश्चर्य तथा सन्तोष से पुलकित हो सोचने

लगा कि आज ही मेरे बोर दुःखों की महाराति का अन्त हुआ, मेरा जन्म आज शुभ एवं सफल हुआ । तदनन्तरं परम पवित्र होकर उस मन्त्र को जपते-जपते पर्वत पर चढ़कर उसके ऊपर पर्वतों से निकले हुए झरने को देखते हुए श्री स्वामि पुष्करिणी के पास भाग्यवश जा पहुँचा । वह आकाश से उतरकर नीचे आई हुई मंदाकिनी गंगा के समान अथवा पाप-नाशिनी, पुण्य प्रदायिनी विरजा नदी के समान मालूम हुई। (३१-३३) आत्मारामस्तथा तत्र सस्नौ शास्त्रे यथोदितम् ।। ३४ ।। स्नाने कृते तस्य देहो भारपाते यथा लघुः । । तत्रोत्थायच तत्पुण्यं ददर्श वनमुत्तमम् ।। ३५ ।। तत्र दृष्टं महद्धाम विमानं सिद्धसेवितम् । अनेकगोपुरोपेतं मण्डपानन्त्यसंयुतम् ।। ३६ ।। अनेक रत्न खचितं तप्तहाटकनिर्मितम् । गन्धर्वनगरप्रख्यं दृष्टिचित्तापहारकम् ।। ३७ ।। ।