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शाशी में झोर देकर, वहुत दुःखी एवं छाँखों दुग्ध दी हुई, क्षुःखसे बहुस रोती थुई पुत्री पद्मावतीयो अन्त्रोंसे अर्पण किया और अत्यन्त रीती हुई श्रीनिवास (३९०) 8 ध्रुष्टा पालितां यालिताँ पुत्रीं ववभासघृता मया ।। ३९१ ३: त्वदधीनां अगन्नाथ ! करिष्ये मम नन्दिनीम्' । इत्येवभर्पयन्त्यां तु धरण्यां राजसत्तमः ।। ३९२ ।। स तस्या रोदनं दृष्ट्वा राजा दुःखपरायणः । रुरोद बीनवदनः पुत्रीमालिङ्गध भूपतिः {। ३९३ ।। भूध धरणो धोली-हे जगन्नाथ ! लालन पाखन एवं नव भास (पेटमें) धारण कौं। हुई मैं अपनी पुत्री को तुम्हारे आधीन करती हूँ : धरणीके इस प्रकार अर्पण झारते सभयके रोदन् को देखकर दुखी दीन मुख्वाला राजा भी पुतो को लिङ्गलः (३९१-३९३) हा धुखि भन्दभाग्योऽहं त्वद्वियोगेन केवलम् । जीब म कल्याणि न स्थिरं च भविष्यति ।। ३९४ ।। राजा बोले-ा पुत्री ! फेवल ऐरे बियोग हैं मग्य प्राग्यशाला हूँ, हे कल्याणि, मेरा जीवन भी स्थिर नहीं रहेगा । [६९४) श्रीडागृहे राजपुत्री ! तथा भोजनसधनि । भ्राता तव कथं क्रीडाँ भोजनं वा करिष्यति ।। ३९५ ।। राजपुढी! क्रीड़ा और भोज के गृह महारा भाई कैसै क्रीड़ा और