पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६८५

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भन्न तस्मादाज्ञां च मे देहि राजंस्ते स्यात्कृपा मयि ' । इत्युक्त्वा वासुदेवस्तु गरुडस्कन्धमास्थितः ।। ४१३ ।। जगाभ भगवान् साक्षात् सर्वदेवसमन्वितः । श्रीनिवास बोले-हे राजन ! मेरी बात सुनिये ? कार्य की वहुत शीघ्रता है; इसलिये मुझको आज्ञा दीजिये। हे राजन ! आपकी कृपा मेरे ऊपर रहे । इतना कहकर बरुड़के कंधे पर चढ़े हुए साक्षात भगवान श्रीनिवाक्षने सन वेताओं के साथ प्रस्थान किया । तत्र नगर के रहनेवाले सब अनुष्य दुःखी यौर व्याकुलहो, प्राकार और गोपुर पर चढकर अपनी अधिोंसे देखते हुए दिया । प्राकारगोपुरारूढाः पश्यन्तः स्वदृशाऽवदन् ।। ४१४ ।। छ

धन्या राजकुलोत्पन्ना पद्मा कमललोचना । अनुगच्छति गोविन्दं पश्यतेति परस्परम् ।। ४१५ ।। मनुष्य बोले-राजकुल में उत्पन्न कमलनयनी पद्मा धस्य है जो गोविन्द के पीछे पीछे परस्पर देखती हुई जाती है। तब राजा वें श्रीनिवास की दाथ तदा ददौ महाराजः पारिबर्ह श्रियःपतेः । (४१५) पावतीश्रीनिवासयोर्वियन्नृपप्रेषितपारिबहाँदेवर्णनम् तण्डुलाञ्छालिसम्भूतान् वृषभाणां रथोपरि ।। ४१६ ।। आरोप्य प्रेषयामास शतं खारीवियन्नृपः । मुद्रान् गोस्वामिसंरुढांस्त्रिशत् खारीर्ददौ हरेः ॥ ४१७ ॥