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आकाशरजका भेजा हुआ पद्मावती और श्रीनिवास को परिवर्ह (दयाज) आकाशवराजाने सौजारी धानङः चावल बैख शाड़ीपर रखकर भेजा । बैलोंपर लदा हुआ सीस खारौ भूग श्रीनिवासको दिया । हे राजेन्द्र ! अनेकौं भार गुङ्ग और तित्रिणी, हजारों धड़ दूध, सैकड़ों दहीके भंडे, धीसे मरे हुए पांच सौ चर्मपात्र, मृषंप, मेथी, होगे, लवण, तेलके पात्र, झक्करसे भरे हुए दो सौ षडे, वातक (बैगन), आम, केला, जम्बीरीके फल, कुष्माण्ड, कन्द, मूल मरीच और आमला, भक्षुझे ो सौ बर्तन, रम्या (केला) स्तम्भका समूह, रम्भा की त्वचा (वभरा), पन्नोंका सम्क्ष दश हजार घोड़े, एक हजार हाथी , पांद हजार गाँ, एकसौ विका, दो सौ दाखियाँ; तीन सौ दास, अनेकों वस्त्र रत्नसे सजा हुआ पलंग, रत्नोंसे शोभित अपवई [ॉडया) (दायज) इस परिवहं के साथ और वस्तुओंको. लेकर वह भगवद्भक्त, श्रेष्ठ धर्मात्मा राजा छाकाशराज पुत्रके साथ श्रीनिवास के पास आये। सब खसुरको वियन्नृपस्य श्रीनिवासदत्तस्वभक्तिनैरन्तर्यरूपवरप्रतिः दूराध्वानं महाराज ! किमर्थं त्वं सभागतः । दातव्यं किं नृपश्रेष्ठ ! तव पुत्रस्य मेऽनघ ।। ४२७ ।। न्या दत्ता सुतः प्राप्तः सुकृतं किं कृतं त्वया । सन्तोषाश्चातुलः प्राष्टो मम तात,! त् संशयः ।। ४२८ ।। किं ते मनोगतं राजन् तन्ममाचक्ष्व भूपते । । सन्देहं मा कुरुष्वात्र दानादाने महीपते । वासुदेववचः श्रुत्वा वासुदेवमभाषत ।। ४२९ ।।