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80) आकाशराजका श्रीनिवासके दिये हुए अजे निरन्त श्रीनिवास बोले-हे महाराज ! रास्तों में इतनी कूर आप क्षिसलिये आये हैं । हे नृपश्रेष्ठ अनष ! मुझ अपने पुत्रको क्या देना चाहिये? कन्या दी गयी और पुत्र प्राप्त हुआ, आपदे कौनसी सुकृति की थी । हे तात ! मुझको बहुत सन्तोष धा है, इसमें सन्देह नहीं है । हे राजन ! आपले मनमें क्या है तो मुझसे कहिये ! हे राजन ! यहांपर लेदेने में सन्देह मत कीजिये । श्रीनिवासके इस ४२९) सर्वमङ्गलमस्माकं त्वत्प्रसादेन केशव ! । नान्यबाचे जगन्नाथ तव पादसरोरुहे ।। ४३० ।। भक्ति देह्यचलां कृष् सकुटुम्बस्य मेऽनघ । तत् श्रुत्वा वचन तस्य श्वशुरस्य महात्मनः ।। ४३१ ।। दत्तवानस्य सायुज्यमाकाशनृपतेस्तदा । । श्यालकस्य ददौ वस्त्रं स्वाङ्गस्थं मधुसूदलः ।। ४३२ ।। राजा बोले-हे केशव ! आपकी प्रसन्नतः इयलोगोंका व मङ्गल है। मैं दूसरा कुछ नहीं चाहता हूँ । हे कृष्ण ! 'अनघ ! सुकुटम्ब मुलको अपने चरण कमलकी अचल भक्ति दीजिये। अग्दे महात्मा खसुरके उस वचनको सुनकर श्रीनिवासवे उस शाकाणराजाको “ सायुज्य' दिया और अंगका वस्ल शाख (वसुदान) को दिया । १४३२) जामात्रा च समाशप्तः पुत्रीभवनमभ्यगात् । पुत्रि ! गच्छामि नगरं विहरस्व हरिप्रिये ।। ४३ ।। शय श्रीनिवासस्य शयनं कुरु मङ्गले' । इति राजा सान्त्वयित्वा पुत्रों कमललोचनाम् ।। ४३४ ।।