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51 नृत्यवादित्ररुचिरं सुरसङ्कनिषेवितम् । किमिदं निर्जने दृष्टं वनेऽस्मिन्महदद्भुतम्'।। ३८ ।। इति विस्मयसम्फुल्लहृदयाम्भोरुहस्तदा । द्रष्टुं विमानं तद्दिव्यं ययौ पुण्यफलोदयः ।। ३९ ।। उस आत्माराम ब्राह्मण ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार स्नान किया । स्नान कर लेने पर उसका शरीर बोझ उतर जाने जैसा हलका हो गया । तब उसने उठकर उस अत्युत्तम परम पुष्धवन को देखा । उसमें उसने सिद्धों से सेवित एक विमान देखा जो महाधाम अनेक गोपुरों से युक्त था ; जिसमें अनन्त सुन्दर सुन्दर मण्डप रत्नखचित तपाये सोने के बने हुए थे और चित्त को हरण करनेवाले थे । नृत्यवाद से शोभित, सुरवर्गसेवित वह विमान प्रधान गन्धर्व नगरी के समान था । इस निर्जन वन में मैं यह क्या महाद्भुत पदार्थ देखता हूँ ? इस प्रकार आश्चर्यानन्द में मग्न हो वह उस दिव्य पुण्यफलोदय युक्त विमान को देखने लगा । (३४-३९) दश तत्र फुल्लाब्जनयन्न वङ्कटश्वरम् । शङ्खचक्रधरं श्रीश वररावनतहस्तकम् ।। ४० ।। किरीटमुकुटोपेतं कुण्डलाभ्यां विराजितम् । सर्वाभरणसम्पूर्ण पीताम्बरधरं विभुम् ।। ४१ ।। कोटिकन्दर्पलावण्यं श्रीभूमिसहितं परम् । वहाँ उसने फूले हुए कमल के समान नेलवाले वेङ्कटेश्वर भगवान को देखा; जो शंख चक्र गदा और पद्म धारण किये हुए तथा वरदान देने के लिये नीचे किये हुए हाथवाले और किरीट, मुकुट, कुण्डल आदि सर्वाभरण भूषितः पीताम्बरधारी करोडों कामदेव के सौन्दर्य से युक्त श्रीदेवी और भूमिदेवी सहित, विराजमान थे । (४०-४१) ' , ' त्वमेव परमं धाम त्वमेव परमा गतिः ।। ४२ । त्वमेव जगतां स्रष्टा धाता हर्ता महेश्वरः । इति स्तुतं शिवेनापि विधिनॉपि स्तुतं सदा ।। ४३ ।। ।