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574 द्वादशोऽध्यायः समाचर नभराजका, दूतकथन प्रभुपास । ऋषि अगस्त्यको साथ ले, देखन जाना खास ।। १ ।। मरन समय नभदेखप्रभु, दुखित-मृत्यु आकाश अन्त्येष्टी वसुदानसे, वसु-तोण्ड रण राश ।। २ ।। प्रभु पद्मासल्लाहसे, वसुदान् वलदान । ईश तोण्ड संग्राम पुनि, वसु सह तोण्ड मिलान ।। ३ ।। श्रीनिवासं प्रति विथन्नृपोदुन्तज्ञापक्रुदूतागमनम् ततः किमकरोत्कृष्णो राज्येऽस्मिन्पार्थसारथिः । तन्यसाचक्ष्व विप्रेन्द्र ! यत्कृतं चक्रपाणिना ।। १ ।। श्रीनिवासकेप्रति आकाशराजके समाचार बतानेवाले दूतका आना जनक बोले-तब इस राज्य अर्जुनके सारथी कृष्णने क्या किया ? है ब्राह्मण! चक्रपाणिसे जो ख्यिा गया वह मुझसे कहिये। (१) एवं काले गते तस्मिन् षण्मासाश्च समत्ययुः । चारायणपुराद्दूतः आगतो वेङ्कटेश्वरम् ।। २ ।। दूतं दृष्ट्वाऽब्जाता सा सुवर्णमुखरीजले । स्रातुकामाऽरविन्दाक्षी दूतं वचनमब्रवीत् ।। ३ । । शतानन्द बोले-इस प्रकार छः मास उमय वीत गया। श्रीर्वेङ्कटेश्वरके पास एक दूत आया, और सुवर्णसुखरीके जलमें स्नान करवकी बाद नारयणपुरसे इच्छावाली वह कमलयनी पद्मावती दूतको देखकर उससे वचन बोली ! ... (३)