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678 तद्वातमिवदद्देवीं श्रीनिवासाय विष्णवे । तच्छूत्वा वासुदेवस्तु रुरोद नरसत्तम ।। ११ ।। दूत बोला-हे माता! क्या कहूँ, तुम्हारे पिताका काल आ गया है; मरनेके निकट होकर, कुछ प्राणके सहित वह राजा तुमको और सुहृदों से युक्त श्रीनिवासको देखनेकी इच्छा करते हैं । हे भद्र ! अपनो पतिको भितःकी राजधानीको खे चलो । इस दूतके थचनको सुतकर वह पद्मावती बेहोश कर गिर पड़ी ; अगस्श्यकी स्त्री लोपमुद्रा उस झाला, पिताकी प्यारो, राजाकी पुत्री पद्मावतीको उठाकर , श्रीनिवासके पास ले छायी और उसने उसकी (पद्मावतोकी) बात श्रीनिवाससे कही। उसको सुनकर, हे नरश्रेष्ठ ! श्रीनिवास रोने लो (११] क्षौनिवास उवाच 'अहो बत महत्कष्टं सम्प्राप्तं मम भामिनि । किं करोमि क गच्छामि ! बूहि त्वं पदसम्भवे' । इत्येवमुक्त्वा तां देवीमन्नवीत्कुम्भसम्भवम् ।। १२ ।। श्रीनिवास बोले-हे मेरी -प्यारी ! मुझको बहुत ही कष्ट प्राप्त हुआ । मैं क्या करूं, कहाँ अऊँ, हे पद्मावती, तुम कहो ! उस देवोसे ऐसा कहछर (१२) वियन्नृपविलोकनाय अगस्त्येन सह श्रीनिवासगमनम् श्रीभगवानुवाच

  • अगस्त्य मुनिशार्दूल ! गच्छामि नगरं प्रति ।

पद्मावत्या सहाथैव सार्ध बंकुलमालया ।। १३ ।। इत्युक्त्वा प्रययौ राजन् ! भगवान् भक्तवत्सलः । अगस्त्येवापि सहितस्त्वरयैव महर्षिणा ।। १४ ।। आदित्येऽस्तं गते राजन्नगरद्वारमागतः । पप्रच्छ द्वारपालांश्च राजक्षेमं सुरेश्वरः ।। १५ ।।