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678 उत्थापय सुतां राजन् ! रुदन्तीं तन्थ्यं तथा । वसुदानं शिशु राजन् ! पितृहीनं च मां नृप ।। २१ ।। कस्राता त्वां विदा राजन्नस्माकं तु भविष्यति । अनाथान् साथ त्ः पाहि प्रजाः पाहि प्रजापते' ।। २२ ।। प्रलपन् पुनरप्याह लोकानित्यं विडम्बयन् । कलेबरं कथं दास्याम्यझये लोकमोहनम् 1१ २३ ।। एतदर्थ स्वपुत्रीं मे दत्त्वा मृतिमवाप्स्यसि । श्रीनिवास ! न गच्छेति पूर्वमेव त्वयोदितम् ।। २४ ।। उक्त हितं मया तात व श्रुतं ते महीपते ! । न तृप्तं नेत्रयुगलं दृष्ट्वा त्वन्मुखपङ्कजम् ।। २५ ।। तोण्डमान् मण्डलाधीशो वसुधायां महामते । का गतिर्मम राजेन्द्र ! का वात क्व भविष्यति ।। २६ ।। विलोकय महाराज सौ च द्यावतीं तथा । मरनेको तैयार आकाशराजको उद्देश्य करके श्रीनिवासका दुःख. प्रगट करना मुखके ऊपर भुख, ललाटके ऊपर ललाट, पेटके ऊपर पेट तथा नेष्ठके ऊपर नेक्ष रख उन्होंने उस महात्मा श्वसुरकै अङ्गका साथ दिया तथा संधारको मोहित करते और विलाप करते हुए कि “हा तात ! हा नाथ! अपनी देछ; पुष्ठ और पुत्रीकी छोड़कर आप कहाँ चले ? राज्य के साथ सूक्ष्म बुद्धिवाले अपचे भाईको छोरुर कहाँ जाते हो ? माता और पितासे हीन मेरे आप ही पिता हैं। अपनी अआंखोंसे आपका उत्तम मुखकमल कैसे देखैगा ? हे राजन !: रोती हुई पुत्री और पुत्रीको उठाओं ! हे राजन वसुदान शिशु और पितृ चीन मुझको आपके बिना कौन अधानेवाला होगा ? हे नाथ ! हम अनाथोंकी रक्षा कीजिये । हे प्रजा के स्वामी ।