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हैं ज्ञाॉकी भी रक्षा करो," इस प्रकार जीलने लगै-“ऐसे लोक सुन्दर शरीरको अग्नि में कैसे दूंगा ? इलौलिये अपनी पुत्री सुझे देकर भृत्युको प्राप्त होते हो ?

  • श्रीनिवास भल जाऊी'-ऐसा पहले अपने झह था; हे तात ! हे राजन !

छापका प्रिय वचन मैं ने नहीं सुना आएडे मुखकमलको देखकर भेरे दोनों वेत तृप्त नहीं हुए हैं । हे भापति ! पृथ्जीपर तोण्डमान मण्डलके स्वामी होंगे; हे राजेन्द्र ! मेरी क्या गति अर्थात् कौन बात हांग्र होगो? हे भाराज ! मुझको और पथावती की देखो ' । (२६) मुनिरुवाच जामाताऽयं सखायातः पद्मावत्या समन्वितः ।। २७ ।। बहिर्गच्छ पुरेव त्वं समानयनकारणात् । भोजनं दीयतां तस्य जामातुः परितोषकम् ।। २८ ।। गजानश्वान्महाराज वस्राणीच्छति ते सुतः । तां ददस्ब महाराज प्रीतये मधुघातिनः' ।। २९ ।। मुनि बोले-पद्मावलीके साथ जामाचा जाये हुए है। पहले की तर डनको लावे के लिये शाप बाहर निकलिये और उठ जामाताकौ रुचिकर भोजच दीजिये । हे महाराज ! आपके पुत्र छोड़े, हाथी और वस्द्र चाहते हैं। हे महाराज ! उस मधुसूषन श्रीनिवासकी प्रसन्नता हेतु यह सब दीजिये । (२९) इंत्यगस्त्येन वै राज्ञि ! बोधितेऽप्यप्रोधिनि । विललाप महाराज ! भगवाँलौकिकै: सः ।। ३० ।। तदद्भुतं कर्म चकार देवो विडम्बयन् सर्वजनं जगत्पतिः । यथा कुरूणां रणरङ्गमध्ये कर्णो हते धर्मराजश्चकार ।। ३१ ।। एवं रुदति गोविन्दे राजाऽऽकाशश्वसनृप । किञ्चित्संज्ञायुतो भूत्वा वासुदेवमभाषत ।। ३२ ।।