पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६९८

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

880 हे महाराज ! इस छागस्त्यसे समझाये जावेपर भी राजाछे नहीं सभक्षनेपर, सौकिक मनुष्योंके समान ही संसारके स्वामी सब मनुष्यको मोहते हुए विलाप शहरने लगे और उन्होंने वह अद्भुत कर्म क्रिया जो कौरवों के रणक्षेत्र में कर्ण के मारे जानेपर धर्मराज युधिष्ठरने किया था । श्रीनिवासके इस प्रकार रोते समय वह श्रेष्ठ थाकाशाराजा कुछ होशमें जाकर श्रीनिवाससे दोले । (३२) 'पुत्रं सभ्रातरं त्राहि श्रीनिवास ! निरामय' । इत्युक्त्वा भूपती राजन् करे कृष्णस्य तौ ददौ ।। ३३ ।। भार्या सन्देशयामास स्वलोकासनाय च । राजा बोले-हे निर्दोष श्रीनिवास ! भ्राता के साथ पुत्रक्षी रक्षा कीजिये । हे राजन ! ऐसा इहरुर उन दोनोंको श्रीनिवासके हाथ में दे दिया, और स्वर्गलोक (३३) मृताय वियन्नृपाय वधुड्नकृतचरभकृत्यक्रमः इत्यादिश्य त्यजन् प्राणान् सत्यलोक जनाधिपः ।। ३४ ।। दिव्यं विमानमारूढो जगाम स नृपोत्तमः । साऽपि तेन जगामाशु धरणी राजसत्तम ।। ३५ ।। ततश्चितां समारोप्य राजानं सपरिग्रहम् । मरे हुए आकाशराजकी वसुदानकी हुई अन्त्येष्टि िकया यह् आज्ञा देकर राजा प्राशको छोड़ते ही स्दगीय विमानपर चढ़कर सत्यलोक चले गये। वह धरणी भी उन्होके साय शीघ्र चली गयी। वसिष्ठो गौतोऽद्धिश्च भरद्वाजोऽतिविश्रुतः ३६ ।। 11