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प्रणम्योत्थाय सन्तोषात्स्तातु । गदगदकण्ठधत 'सर्वं त्वमेव जानासि सर्वात्मंस्त्वां नमाम्यहम्' ।। ४४ ।। इति प्रणम्य भूयोऽपि तूष्णीं पश्यन् स्थितोऽग्रतः हे देव ! आप ही परमधाम हैं! आप ही परमगति हैं!! आप ही संसार भी सृष्टि पालन और संहार के कर्ता । परमेश्वर हैं!! इस प्रवार सदा महादेव तथा ब्रह्माजी के भी स्तुत्थ भगवान को संतोष से प्रणाम करके गदगद कण्ठ से स्तुति करने के लिये उठा । हे सर्वात्मन, थाप सब जानते ही हैं मैं क्या स्तुति करूं, केवल प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार बारम्बार प्रणाम कर चुप खड़-खड़े सामने देखने लगा । (४२-४४) पाया । सर्वज्ञः करुणारूपः श्रीनिवासः परात्परः ।। ४५ ।। ज्ञात्वा मुग्धं च तं प्राह मा भैषीमशुिचः पुनः । क्षान्तं त्वया कृतं सर्वं व्यूहलक्ष्मीं विमृश्य तत् । ।। ४६ ।। ऐश्वर्य सुमहद्दत्तं दीर्घकालानुबन्धनम् । दीर्घमायुश्च ते दत्तमारोग्यं ज्ञानशीलता ।। ४७ ।। मया दत्तान्द्विजश्रेष्ठ ! धुंक्ष्व भोगान्बहूनपि ' । एवं बृवति देवेशे प्रणनाम पुनश्च तम् ।। ४८ ।। उत्थाय भूयो देवं च नाऽपश्यत्पुण्यकाननम् । सर्वज्ञ, करुणारूप, श्रीनिवास, परात्पर, भगवान उसे मुख देखकर उससे कहने लगे-हे बत्स भय न करो, तुम्हारा सब अपराध क्षमा किया । अब तुमने व्यूहलक्ष्मी को खोजकर अलभ्य लाभ एवं अत्यद्भुत कर्म कर दिखाया, अतएव अनन्त ऐश्वर्य, परमारीग्य, विलक्षण ज्ञान एवं शील मैं ने सुमको प्रदान किया ; अब तुम अखण्ड भोग करो ! ऐसा कहते हुए भगवान को उस द्विजश्रेष्ठ ने पुनः प्रणाम किया परन्तु जब ऊपर उठा तब पुण्यवन और भगवान को देख न (४५-४८ ) अतिभीतः परिक्रम्य सरस्तीरं विमृश्य च ।। ४९ ।। अ