681 प्यारी! स्थिौंका परमधर्म पैतिभक्ति दी हैं; तुम्हारा भला हो, वह तुम्झारः माई और वे तुम्हारे निध्टद्धि है; ऐसा मानकर, हे महाभाग्थबाली ! अपने सम्बन्धियों की भलाई करो । हे कल्याणि पेरा मन हो सन्धिके अपायकी प्रशंसा करता है। इसमें सन्देह शहीं, बै क्षेनों एाज्य अरनेवाले पिता और पुत्र हैं । मुनिसे इतना कहे जानैपर राजपुवी उठी । हे महाराज ! त्वणं है दण्डसे शोभित झांदोलिझा (डोली) पर चछर मुनिके साथ, श्रीनिवासमें लगी हुई यह राजपुत्री
- ाकारसे रणभूभिशो गयी ।' रणके आगे पृथ्वीपर पड़े हुए देवताओं के स्वामी
गरुड़कै ध्वजावाले अपने पति श्रीनिवास कृष्णकी देखश्रुर खड्ग और कवचदे सहित उनकी रणभूमिसे उठाकर ठंडे जलके साथ सुगन्ध एवं व्यजनसे उनशा मार्जन किया और वह शतिव्रता पद्मावती सोचती हुई बोली । [९४) 'उत्तिष्ठ रणभूस्यास्त्वं त्यक्त्वा मूछ खगध्वज' }; ९५ ।। इति विज्ञापितो देव्या पद्मावत्या तदा नृप । मुहूर्तमात्रं गोविन्दो नरलोकं विडम्बयन् । ९६ ।। भूछ गत इव स्थित्वा प्रबुद्ध इव चोत्थितः । उत्थाय रणभूम्यां स पश्यन्दश दिशो हरिः ।। ९७ ।। ददर्श स्वप्रियां राजन् स्थितौ पद्मावतीं विभुः । ध्रुकुटोयुतचेतं तु गर्हयन्वाक्यमब्रवीत् ।। ९८ ।। क्रोधित श्रीनिवाससे अगरत्यका पद्मावती के पद्मावती बोली-है गरुडध्वज ! सूच्छकिो छोड़कर आप रणभूभिसे ७ठिये । इस प्रकार पद्मावती देदीसे कहे जानैपर मनुष्य लोको भोहित करते हुए श्रीनिवास भूशि होनेके ध्यान ए भुहूर्त तक व्हरकर आगे हुए के उस, लठे ।