पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७१

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53 स्वप्नो मतिभ्रमो वापि माया वा सत्यमेब वा ! । न जाने देव देवेश ! सत्यमेव भवेत्र वा ' ।। ५० ।। इति बृवन्द्विजस्तस्मादवरुह्य गिरेस्ततः । पर्यन्ते वेङ्कटाद्रस्तु बासं चक्रे प्रसन्नधीः ।। ५१ ।। यथेप्सितं सुख रेमे दीर्घकालेन वै द्विजः । इति वाल्मीकिना पूर्वमुक्तमुक्त भया पुन ।। ५२ ।। तब बहुत उरकर नदी का तट खोजा और याद करने व सोचने लगा कि यह स्वप्न था वा माया मतिभ्रम था अथवा सत्य सत्य घटना ही थी । है देव, देव प्रभो ! कुछ जाना नहीं जाता, क्या यह सत्य ही संघटित हुआ है? इत्यादि कहते हुए वह ब्राह्मण उस पर्वत पर से नीचे उतर आया और वेंकटाचल (पर्वत) के निकट ही प्रसन्न चित्त से निवास करने लना और पीछे यथेप्सित सुख बहुत दिनों तक भोगता रहा । यह वाल्मीकि कथित कथा हमने आप लोगों से पुन: कही ! (४६-५२) इति श्रीवाराहपुराणे श्रीवेङ्कटावलमाहात्म्ये आत्मारामाख्य विप्रस्थ संपत्प्राहयादिवर्णनं नामैकोनचत्वारिंशोध्यायोऽत्र सप्तमः