हे राजन ! उठकर दर्शों दिशाओं में देखते हुए श्रीनिवास प्रभू ने बैठी हुई पद्माघढी को देखा और उसको झिड़कते हुए भी टेढ़ीकर वचन बोले। (९८) श्रीनिवास उवाच--- 692 ': ': अस्मिन् रणाजिरे घोरे वनितानां प्रयोजनम् । किमस्ति ? मुनिशार्दूल ! द्रुतमेषाऽद्य गच्छतु' ।। ९९ ।। श्रीनिवास बोले-हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! इस षोर रणभूमि स्त्रियों की क्या आदश्यकता है? यह शीघ्र ही चली जाय । भगवानसे इस प्रकार हे जाने पर पड्मावती के साथ आये हुए वह तपस्वी अगस्त्य उन श्रीनिवास से (१००) इत्थमुक्तो भगवंता पद्मावत्या सहाऽगतः । अगस्त्यः श्रीनिवासं तं प्रत्यभाषत तापसः ।। १०० ।। सन्धिरत्र प्रकर्तव्य: श्रीनिवास सतां गते । उत्तिष्ठ स्यालकं बालं समानय नृपोत्तमम् ।। १०१ ।। तोण्डमानं महाराजं तत्सुतं तं महाबलम् । श्रीनिवासाभिधानं च तक्षु रोषाकरं हरे ।। १०२ ।। समाधानं कर्तुकामा संप्राप्तैषा रणाङ्गणे । शोचन्ती तव दुःखेन भ्रातुश्च भरणं प्रति' ।। १०३ ।। अगस्त्य बोले-हे सज्जनोंकी गति श्रीनिवास । यहाँ पर संधि करनी चाहिये, उठिये और बालक शालक एवं श्रेष्ठ महाराज तौण्डमान और श्रीनिवास नामक आपके क्रोधका पात्र, उसंहे महाबली पुत्रको ले आइये। आपके क्रोध के समूहकों समाधान करनेकी इच्छावाली यह आपके दुःख एवं. भाई के आवी भरणका सोच करती हुई आयी है । . : (१०३)
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