पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७१२

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प्रसादात्तव गोविन्द ! निवर्तस्व रणाङ्गणात्' । इति प्रियाघवः श्रुत्वा श्रीनिवास उवाच ताम् ।। १११ ।। पद्मावतीकी प्रार्थनसे श्रीनिवासके द्वारा तोण्डान और वसुधान के मध्थमें सन्धि पद्मावती बोली-हे कमलनयन, स्वामी, कृपानिधि, दयासिन्धु, श्रीनिवासl धया कीजिये । भक्तोंको अमय कीजिये । हे संसार के नाश करनेवाले जगन्नाथ ! इस क्रोधसे क्या ? वे दोनों श्रेष्ठ राजा राज्यकर्ता ही है, राज्य, कोण इत्यादि सभी बांट दीजिये । हे लक्ष्मीपति ! आपकी कृपासे सब लोगोंक्षा एवं पिताका मी कुशल हो; रणभूमि से लौटिये । यिा के इस डचनको सुनकर श्रीनिवास उससे बौद्धे ! (९१९) श्रीनिवास उवाच - क्षात्रधर्म न जानासि त्वं गच्छाद्य रणाङ्गणात् । अथाहं तोण्डमानस्य सपुत्रस्य रणे शिरः ।। ११२ ।। पातयिष्ये महासंख्ये पश्यतां सर्वदेहिनाम् । स्यालकार्थ म्रिये चापि नात्र कार्या विचारणा ।। ११३ ।। इत्युक्ता सा कम्पमाना मुनिमाह कृपाविधिम् । श्रीनिवास बोले. तुम क्षद्वियोके धर्मेको नहीं जादती ही। अब मैं पुत साथ तोण्डमानके शिरको इस महासंग्राम सबके देखने ही-देखते गिरा दूंगा । शालकके लिये मैं मर भी जाऊँगा, इसमें विचार नहीं करना चाहिये। ऐसा कहे जानेपर कांपती हुई वह दयाविधि मुनि बोली । (११३॥ निवर्तय रणात्त्वं वा वेङ्कटेश मुनीश्वर ! ।। ११४ ।। इति विज्ञापितो देव्या लोपामुद्रापतिस्तदा । मुनिः प्रोवाच राजेन्द्र ! श्रोत्विासं रणप्रियम् ।। ११५ ।।