पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७१९

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सन्तुष्टः प्राह गोविन्दः श्रीमन्तं राजसत्तमम् । 70 इस प्रकार सुन्दर शरीरवाले श्रीनिवासी स्तुति करके, हे महाराज ! रणमें चतुर यह राजेन्द्र ठहर गया । तोण्डमानये सिये स्तोत्रके द्वारा प्रसन्न हुए श्रीनिवास सन्तुष्ट होकर श्रीमान श्रेष्ठ राजासे रोले । (१६) श्रीनिवास उवाच राजन्नलमलं स्तोत्रं कृतं परमपावनम् ।। १७ ।। अन्त स्तवराजेत मासर्चन्ति च ये जताः । तेषां तु मम सालोक्यं भविष्यति न संशयः ।। १८ ।। आकाशराजो धर्मात्मा प्रापा मुक्तिपदं नृप । तेन राज्ञा प्रसिद्धोऽहं भूलोके भूमिपालक ।। १९ ।। कृत्वा विवाहविभवं दृष्ट्वा मामागतं गृहम् । सन्तोषसतुलं लेभे राजा परमधार्मिकः ।। २० ।। दैवमेव परं मन्ये पस भाग्यफलोदयम् । कृतं कर्म सुखं दुःखमनुभोक्तव्यमञ्जसा ।। २१ ।। का गतिः पुरतो राजन्विना राज्ञा महात्मना । श्रीधरस्य वचः श्रुत्वा तोण्डमानाह माधवम् ।। २२ । श्रीनिवास बोले-हे राजन ! वस, बस आपने बहुत पविद्ध स्तुति की। इस स्तवरांजसे जो मनुष्य मेरी पूजा करते हैं उनकी मेरी सलोकता प्राप्त होती है, इसमें सन्देह नहीं । हे पृथ्वीका पालन छरतेवाले राजा ! धर्मात्मा आकाशराज मेरे प्राणस्वरुप तथा मुक्तिके स्थान भीथे, उन्ही राजासे मैं लोकमें प्रसिद्ध हुवा । परम धर्मात्मा राजावे विवाहका उत्सव कर तथा मुझे. आया हुआ देखकर अतुल सन्तोष लाभ किया । उन्हें भाग्य फलको उदय करनेवाला में दूसरा ही दैव

  • समझाता हूँ । किये हुए कसेंके अनुसार सुख और दुःख का भोग आवश्य ही