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54 अष्टमोऽध्यायः कपिलादिसप्तदशतीर्थभहात्म्यम् ऋषय ऊचुः-- 'वराहाद्रिकथा नृणां श्रोतृणाममृतोपमा । वैकुण्ठाद्रेः कथां श्रोतुं भूयस्तृष्णा विवर्धते ।। १ ।। दश सप्त च तीर्थानि विद्यन्ते कनकाचले । इति पूर्वं त्वया सूत ! कीर्तितं हि प्रसङ्गतः ।। २ ।। ब्रूहि तेषां तु तीर्थानां माहात्म्यं पुण्यवर्धनम्' । इति पृष्टः पुनः प्राह मुनीनाहूय सादरम् ।। ३ ।। विष्वक्सेना शुक्र अरु, कपिल आयुधी पांच । अग्निब्रह्मम सप्तर्षि के, सात तीर्थ करि जांच ।। १ ।। पूरक सर्वाभीष्ट के, दाता पदनिर्वान । पाण्डु बलिध्न जराहरु, क्राय रसायन् मान ।। २ ।। भहिमा फल अरु सिद्धि अघ-नाश, ईश अवतार । इस अष्टम अध्याय में, लिखा बुद्धि अनुसार ।। ३ ।। कपिलादि सप्तदशतीर्थमाहात्स्य ऋषियों ने कहा-सुननेवाले मनुष्यों के लिए वराहाद्रि की कथा अमृत के समान है । अत एव आब पुनः श्री वैकुण्ठाद्रि की कथा सुनने की इच्छा होती है । हे सूतजी, आपने पूर्व प्रसंग में कहा था कि कलकाचल में सत्रह तीर्थ हैं। उन तीर्थो का कृपया पुण्यवर्धक माहात्म्य कहिये। यह सुनकर सूतजी उन मुनियों को साथ बैठाकर आदर से कहने लगे । (१-३) सूत उवाच -- तीर्थानां चैव माहात्म्यं तेषां वक्तुं च कृत्स्नशः । न शक्यं लेशतस्तेषामुच्यते श्रयतामिदम् ।। ४ ।। ४