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04 आस्थानमण्डपं दिव्यभद्भुतं यागमण्डपम् । गोशालां धान्यभवनं ततो मालाकरं गृहम् ।। ३५ ।। वस्त्रहं तैलशालां घृतार्थं भवनं पृथक् । भक्ष्यशाली विशालां च भूषणानां गृहं तथा ।। ३६ ।। कपूरगन्धमाजालतलकस्तारकागृहम् । कल्पयाऽशु च राजेन्द्र गजाश्वभवनं पृथक् ।। ३७ ।। ताम्रपत्रैः सुसम्बद्धं स्वर्णालङ्कारमण्डितम् तीर्थमन्नशालाग्रे भूतीर्थ भूमिपालक ! ।। ३८ ।। त्वया विनिर्मितं पूर्व तोण्डमान महीपते ! । तदद्य कुरु शोभाढ्धं शिलाबन्धक्पूर्वकम् ।। ३९ ।। इत्युक्तो वासुदेवेन राजा वचनमन्नवीत् । हे राजन ! नामलदेवी और राजाके साथ देवताओं के राजा गरुड़ध्वज शुभ मुहूर्त शुभ लग्न, धुम नक्षत्र, एवं शुभ तिथिमें शेषाचलपर चढ़ गये और वाराकी अनुमतिसे स्वागि पुष्करिणीके दक्षिण तीरपर उन्होंने अपना घर दिखलाया और कहा कि हे राजेन्द्र ! यहाँपर शुभ पूर्वमुखका, दो गोपुर (फाटक) वाला, बड़े-बड़े तीन प्राकार (छत्) वाला, सात श्रेष्ठ छ्वारवाला, देहली और तोरणसे युक्त, श्रेष्ठ ध्वजा-स्तम्भसे थोभित और सब लक्षणों से युक्त चैत्य (आलय) बनवाना चाहिये, और अलौकिक सभामंडप, अद्भुत यज्ञशाला, भाण्डारधर, उसके शाद माला बनानेवालेका घर, कपड़ोंकाघर, तैलशाला, धौके लिये पृथक् घर, भोजनका बड़ा धर, भूषणक्षाधर, कपुर, गन्ध, माजरितैल और कस्तूरीका घर और पृथक्-पृथ हाथियों और घोड़ोंका घर, हे राजेन्द्र ! शीघ्र बनाइये। हे पृथ्धीके पालन करनेवाले ! ताम्रपखसे अच्छी तरह बन्धा हुआ और स्वर्णके अलझ्कारसे शोभित श्रीतीर्थ एवं अन्नशालाके आगे भूतीर्थ, पूर्वमें आपसे ही बना था । हे राजा तोण्डमान ! उसका आज धूमधामसे शिलान्यास कीजिये । श्रीनिवाससे इस प्रकार कहे जातेपर राजा वचन बोले ! (३९)