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705 कृष्णावतारकी पुरानी श्रूयो सुन्ञ्छन्, ननुष्योंझै शरीर, का एबं कर्मझी स्थिरता नहीं हैं । ऐसा विचारलर, उत्तम् कुश फैले हुए द्राविड़ चील देश में निराहार और जिसेन्द्रिय होकर, कठिन ढश्यासे कृष्के रूपको देखना ऐसा दृढ़ निच्चय कर तपस्या करने लगे । उत तपस्या करनेवाले थागे उक्त्तवत्सल भगवान् गोपालक्षा तबलाक्षात् हरिको देखकर वह भूनि उनकी स्तुति करने लगे । (४६) 'पूजां करोमि पुरुषोत्तम पुण्यसूतें इत्थं क्षीरित उवाच टुनीश्वरं तं हस्थोचितं वचनमेव महानुभाव ।। ४७ ।। वैखानस बोले- पुरुषोत्तम ! है देव देवा हे करुणाकरदेव ! हे गोपाल ! हे पुण्यमूर्ति ! मैं पूजा करता हूँ । इस प्रकार कहे जावेपर भहानुभावने अपने इति वचनको तुभ मुनीश्वरसे कहा । (४७) श्रीकृष्ण उवाच---- त्वया ध्येयः श्रीनिवासो नाहं ध्येयो मुनीश्वर । गच्छ शेषगिरिं तत्र वल्मीके वर्तते शुभा ।। ४८ ।। प्रतिमा श्रीनिवासस्य तत्पूजां कुरु सन्ततम् । सङ्गमिष्यति ते मार्गे शूद्रः श्रीरङ्गदासकः ।। ४९ ।। पूजकस्य भवेच्छूद्रः सेवकस्ते महामुने' । श्रीकृष्ण बोले-हे मुनीश्वर ! आपकी ताराधनाके योग्य श्रीनिवास ही हैं; मैं नहीं हूँ । शेषाचलको भाइये ! वहाँ श्रीनिवासुकी शुभ प्रतिमा बल्मीक में है। उन्हींको सदा पूजा कीजिये । आपके मार्ग में श्रीरंगदास नामक एक शूद्र मिलेगा, आप पूजा करदेवालेकाँ वह सेवक होगा । (५०)