पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७२६

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708 हरि से इस प्रकार पहे जाने पर इह वेङ्कटाचल पर आये । रास्से में इनसे उस शूद्र से मॅट हुई ! उसी के ाथ श्री वेङ्कटात्रल वाकर, वल्मीक में ठहरे हुए पुष्टि हो देखकर भुनि ने शुनकी पूजा की ; और वह श्री रंगदास फूल तोड़ लाया । अकस्मा दैव्योग से कुण्डल नाम का गन्धर्व अपनी स्त्रियों के साथ जलाशय में स्नान करने के लिये शीघ्र आया । वसन्तकाल में, बिना मनुष्य के अस स्थान में स्वामि पुष्करिणी में जलक्रीड़ा करते हुए उनको रङ्गदास ने देष्धा । आनन्द से विहवल हो उसने पृथ्वीतल पर वीर्येथातकर दिया और पुनः स्नान कर पवित्र हो, पश्चात्ताष से दुखित हो, सब मालाओं दो छोड़, पुनः फूलों को सोड़कर, शीघ्र उदको लेकर तथा वह देवालय को पहुँचकर शूद्र श्रीहरि के आगे दड़ा हुआ । मुनि रंगदास को देखकर क्रोध से धीरे-धीरे झिड़ङले गे-हे शूद्रनन्दन बालक ! महात्मा चक्रयाणि की पूजा का समय जीत गम, तूने किस लिए देर की ? शूद्र द्वारा पूजा में बाधा की निन्दाकर, मुनि और शूद्र के चुर खड़े हो जाने पर राङ्क अक्र धारण करनेवाले शूद्र से [६०) श्रीनिवास उवाच 'मा भैषीः पुत्र ! भद्रं ते रङ्गदास ! महामते ।। ६० ।। मायया मोहितं विश्वं ससुरासुरमानुषम् । तत्रापि तव बुद्धिस्तु पश्चात्तापेन योजिता ।। ६१ ।। तस्मात्त्वशुभः शूद्र सन्त्यजाऽतः कलेबरम् । स्वामिपुष्करिणीतीरे सर्वपापनिबारणे ।। ६२ ।। मरणात्पुण्यदेशेऽस्मिञ्छुद्धो जन्मान्तरे पून । सुधर्मतनयो भूत्वा तोण्डदेशाधिपो भव ।। ६३ ।। तोण्डमानि'ति विख्यातो लोके कीर्ति गमिष्यसि । शतस्त्रीवल्लभो भूत्वा मम भक्तश्च केवलम् ।। ६४ ।।