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। 55 गिरेरध: प्रदेशे तु कापिलं लिङ्गमुत्तमम् । पातालं पूजितं पूर्वं कपिलेन महात्मना ।। ५ ।। कुतश्चित्कारणात्तत्तु लिङ्ग परमपावनम् । भित्वा तु धरणीं तस्मान्निर्गतं पूजितं सुरैः ।। ६ ।। तल्लिङ्ग स्थापितं भूमौ प्रार्थितं सर्वदैवतैः । तदग्रे भुवमुद्भिद्य निर्गता कपिला पुरा ।। ७ ।। तब्दिल कापिल तीर्थ सर्वपापप्रणाशनम् । सूतजी बोले-सम्पूर्ण रूप से तीथों का माहात्म्य नहीं कहा जा सकता, अतः बहुत संक्षेप मात्र में ही उनका माहात्म्य कहता हूँ ; आप लोग ध्यान से सुनें । इस पर्वत के निम्न प्रदेश में परम उत्तम कपिल लिग है, जिसको प्राचीन काल में कपिल माहात्मा ने पूजा था । किसी कारण से वह परम पवित्र लिंग पृथिवी को भेदकर बाहर निकल आया और देवताओं से अत्यन्त पूजित हुआ। उसी लिंग को पृथिवी पर स्थापित कर सब देवताओं ने प्रार्थना की ! तब उसी लिंग के सामने की पृथ्वी का भेदन कर कपिला नदी निकली । उसी तीर्थ को परम पवित्र कपिल तीर्थ कहते हैं, वह तीर्थ सब पापों को नाश करनेवाला है। (४-७) तदूध्र्वदेशे शक्रस्य तीर्थ परमपावनम् ।। ८ ।। अहल्यासङ्ग सम्भूत शापभोक्षस्तु यत्र तत् । विष्वक्सेनसरस्तस्मादूध्र्व पुण्यविवर्धनम् ।। ९ ।। वरुणस्यात्मजो यत्र तपः कृत्वा सुदुस्तरम् । सारूप्यं च हरेः प्राप्य सैनापत्यमवाप हि ।। १० ।। पञ्चायुधानां तीर्थानि तदूध्वं भान्ति सत्तमाः । तदूध्र्व मग्निकुण्डं स्याद्दुराराह मुपयतः ।। ११ ।। ब्रह्मतीर्थ महाहत्यामोचनं पुण्यवर्धनम् । मुनीनां चैव सप्तानां पुण्यतीर्थानि संत्यतः ।। १२ ।।