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55 दशाधिकफलं तेषां तीर्थानामुत्तरोत्तरम् । एतेषां चैव माहात्म्यं मया वक्तुं न शक्यते ।। १३ ।। उसके ठपर प्रदेश में परमपावन शक्रतीर्थ है, जहाँ इंद्र को अहल्या के संयोग से लगे हुए शाप से मोक्ष हुआ था। उसके ऊपर पुण्यों को बढ़ानेवाला विष्वक्सेन तीर्थ है, जहाँ वरुण के पुत्र ने अति दुस्तर तपस्या कर साक्षात् हरि भगवान के सारूप्य को पाकर सेनापतित्व पाया था । उसके ऊपर पवित्र पंचायुधों का तीर्थ है। फिर अति कष्ट से ऊपर चढ़ने पर भी परम दुर्लभ अग्नि कुण्ड मिलेगा, उसके ऊपर महा इत्यादि मोचन पुण्य-विबर्धक ब्रह्म-तीथं पावोगे । तत्पश्चात् सप्तर्षियों के पुण्यतीर्थ मिलेंगे। इन तीर्थो का उत्तरोत्तर दश गुणित पुण्य फल सुसाध्य हैं। इनका माहात्म्य मैं कह नहीं सकता । (८-१३) पुराऽभवद्विजः कश्चितीर्थयात्राकृतोद्यमः । तमाह कभलाधीशः 'किमर्थ गच्छसि द्विज ! ।। १४ ।। अस्मिन्पुष्कर शैलेन्द्रे सन्ति दिव्यानि सप्त च । दशतीर्थानि तत्राद्य कापिलं सर उत्तमम् ।। १५ ।। स्नात्वा चैतेषु विप्रेन्द्र! शास्त्रोक्तज्ञानपूर्वकम् । कृत्स्नतीर्थ फलं पुण्यं प्राप्स्यसि त्वं न संशयः' ।। १६ ।। इति श्रुत्वा द्विजः पूर्व स्वप्ने चोत्थाय विस्मितः । निवृत्तस्तीर्थयात्रातः प्राप्य श्रीवेङ्कटाचलम् ।। १७ ।। तेषु तीर्थेषु दशसु सप्तसु क्रमशो गतः । स्नात्वा तथैव विप्रेन्द्र ! अ आप्तवानिति मे शृतम् ।। १८ ।। पहले कोई ब्राह्मण तीर्थयात्रा के लिये उद्यत हुआ, तो उसको कमलापति भगवान ने कहा कि हे भ्राह्मण ! तुम किस लिये जाते हो ? इसी पुष्कर शैलेन्द्र पर सत्रह दिव्य तीर्थ हैं; जिसमें कपिल तीर्थ पहला है, जो परम उत्तम है ! हे विप्रेन्द्र शासोक्त रीति से इन तीर्थो ही में स्नान कर लेने से सम्पूर्ण तीथों का स्नान फल तुम अवश्य पा जाओगे । इसमें सन्देह नहीं। यह सब उस ब्राह्मण ने स्वप्न में कहते