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725 पुराद्वहिविनिःक्षिप्य भार्या पुत्रं च स द्विजः । समासदद्राजगृह राजदर्शनलालसः ।। ७६ ।। सिंहासनगतः कान्तं विद्वन्मण्डलमण्डितम् । तमाशीर्भिर्विशेषेण संस्तुत्य पृथिवीपतिम् ।। ७७ ।। राजानमब्रवीद्विप्रः कूमों वेदान्तपारगः । गङ्गास्नानको जानेवाले कूर्म नामक ब्राह्मणका वृत्तान्त राजवणोद्श्रव तोण्डभानज्ञे इस प्रकार राज्य करते करते, हे राजन ! गङ्गास्नान करनेकी इच्छासे पिताकी अस्थि लेकर, वसिष्ठ गोत्रका कूर्म नामका ब्राह्मण-श्रेश् राधव नाभक पुत्र और लक्ष्मी नामकी भायके साथ ब्राह्मण क्षतिथोंसे भरे हुए राजन्गरमें कार्तिक मासके आनेपर दैवयोगसे आया । तोण्डमान कीर्तिको चारों ओर सुनर, ग्रामसे बाहर स्त्री और पुलको छोड़कर, राजा दर्शनकी इच्छासे राजाके वर ब ब्राह्मण-श्रेष्ठ छाया और सिंहासनले पास उपस्थित इोकर वेदान्तको जाननेवाला कूर्मे ब्राह्मण विद्वालकी भण्डलीसे-शोभित उस प्रिय राजाकी, आशीर्वादके साथ विवेष स्तुति करके उनसे बोला । (७८) श्रुता बहुमुखात्कीर्त्तितस्तव भूप ! विशाम्पते ।। ७८ ।। तत् श्रुत्वाऽद्य समीपं ते सम्प्राप्तोऽहं नृपोत्तम । इति विप्रवचः श्रुत्वा पूजयामास स द्विजम् ।। ७९ ।। कूर्म बोले-हे विशांपति ! राजा ! आपकी कीर्ति मैंने उनके मुखसे सुनी है हे श्रेष्ठ-राजा ! उसीको सुनकर मैं आज आपके पास आया हूँ । ब्राह्मणक वचनको सुनकर रावादे उस विप्रकी पूजाकी । (७९) तोण्डभानुवाच 'किमागमनकार्य ते तन्ममाचक्षव भो द्विज !” । इत्थमुक्तोऽब्रवीद्राजन् कूम वेदविदां वरः ।। ८० ।।