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इस प्रकार कहती हुई अपनी स्त्रीकी देखता हुआ तथा अपने पुत्रका आलिङ्गन कर फर पीछे देखता हुआ वह ब्राह्मण चला गया ; वह भी अपने पतिको देखती हुई राजाके घर चली गयी और आंखोंके असुको पछकर, अपने पुत्रको सान्त्वना देशार तथा रात्राको स्त्रीके आकर पुष्के साथ रहने लगी । {९४) गते विप्रे स राजर्षिस्तस्य भार्या च सुन्दरीम् ।। १४ । दृष्ट्वा चिन्ताकुलो भूत्वा मनसीत्थमचिन्तयत । 'त्रिविधाः पुरुषाः प्रोक्ताः धियस्तेषां पृथग्विधाः ।। ९५ ।। एकान्ते भवनं कृत्वा स्थापयामास तत्र ताम् । अन्न षण्मासपर्थाप्तिं सकृत्सोपस्करं ददौ !! ९७ ।। इति सञ्चिन्त्य धर्मात्मा तोण्डमान्याजसत्तमः ।। ९६ !! । तण्डुलाबैश्च काष्ठान्तैः सर्वोपरिणैः सम् । तद्गृहं श्रृङ्खलैर्बद्भवा स राजा तोण्डमानृपः ।। ९८ ।। दूतान्विधाय वै दूरे वार्धक्रोशायते निजे । गृह एव क्वचित्कोणे निगूढं तां तदा न्यधात् ।। ९९ ।। धूर्तानां तु यथा सेयं न गच्छेद्रोचरं दृशम् । ब्राह्मणके चले जानेपर वह राजर्षि उसकी सुन्दरी स्त्रीको देख एवं चिन्तासे घबहाकर मनमें सोचने लगा-तीन प्रकारके पुरुष कहे जाते हैं । उनकी बुद्धि अलग-अलग होती हैं। इसीलिये वह फ्राह्मणको स्त्री मुझसे अत्यन्त यदनसे रखी जानी चाहिये । ऐसा विचारकर, उस श्रेष्ठ धर्मात्मा राजाने एक भवन बनवार उस विप्र-स्त्री को वहाँपर २खा । । चादलसे लेकर शीतक सड सामग्रियोिं साथ एक ही बार छ: मासके लिये पयप्ति अन्न ठसका दे दिया । उस घरको श्रृंखला (अंडीर) से बांधक्षर तथा आश्ध कोसकी दूरी पर दूतोंको रखकर उनको धरके किसी कोनेमें गुप्त रखा, जिससे यह धृतॉकी दृष्टि न वावे । {{००)