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32 हे ब्राह्मण ! अब उसके सब वृत्तान्तुको सुनिथे-पहले दिन शुक्रवार प्राप्त हुआ । eस दिन श्रीवेङ्कटेश का अभिषे ही रहा था । हे ब्राह्मण ! उडके दर्शन के लिए मेरी सब कन्याएँ गयीं। उन्हीं के साथ अपकी स्वी भी और पुल के साथ भगवान दर्शनकेलिए श्रीवेङ्कटवल को गयी ) याज, कल वा परसों (१२१) इति तं सान्त्वयित्वा स गूढं पुत्रमभाषत ।। १२१ !! 'गच्छाद्य पुत्र ! भवनं विप्रपत्न्यास्तु शोभनम् । अध्यग्रः श्रुङ्खलां िछन्धि प्रविश्यान्तर्गहं पुनः ! १२२ ।। ती दृष्ट्वा पुत्रसहितां शीघ्रमानय भूधुरीम्' । इस प्रकार ब्राह्मणको सान्त्वना देकर वह अपने पुत्रसे गुप्त रुपसे बोले-- हे पुक्ष ! अध धैर्य धारण कर उस ब्राह्मणकी स्त्री के सुन्दर घर में जाओ । उस श्रृङ्खलाको तोड़ दो और पुनः भीतर घरमें प्रवेश करके उस भ्राह्मणीको पुतके साथ शीघ्र ले चाओ ? (१२३) स च गत्वाऽतिवेगेन कृतवाञ्जनकेरितम् ।। १२३ ।। ददर्श तत्रास्थिमात्रं रुदन् गद्भदकण्ठवान् । 'ध्रुवं तो वंशनालं तु छिन्नमूलं भविष्यति ।। १२४ ।। इति सचिन्तयन्त्य पितरं वाक्यमब्रवीत् । 'भो स्तात राजवंशस्य नाशकालः समागतः ।। १२५ ।। यतः सा ब्राह्मणी पूर्णगर्भा सह सुता मृता । अस्थिभूता निजे गेहे तदन्नाद्यविचारणात् ।। १२६ ।। बह बहुत तेजीसे गया और पिताके छहे अनुसार सब कुछ किया ; वहाँ केवल अस्यि मात्रको देखकर रोता तथा गद्गदकथ् हो यह सोचता हुआ किं “ अवश्य ही मेरे वंशका मूल नष्ट क्षेोगा'-पिताके पास क्षाकर रुधन