पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७५३

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735 सदा दुःखी हूँ । हे राजन ! हाथ, मैं अकालही में झालको प्राप्त हूँगा अथवा कठिन नरकको अपने दुष्ट भक्ती दुर्भान्ता -दरिद्रतः मैं ले लेता हूँ, ऐसा धर्मके जाननेवाले कहते हैं । मुझमें अश्ने शक्षिताको तो तू वे लोप नहीं किया है । क्या करूं, कहां खाऊँ ? तूने कठिन पाइ थिा है तथापि तुम्हारी मित्रतासे छन भरे हुए जीवोंको जिल:ऊँगा । स्थुिग में इस महापापी राजाकी मुक्सि श्रीवेङ्कटेशते की- ऐसी कीर्ति होनी । हे शत्रुदन ! हे २जा ! उन भरे हुझोंकी सब अस्थियोंको लाने के लिये शाप्से डरे हुए पने पुत्र! इसः उरय भेजो । (१३९) इति श्रीवेङ्कटपतेर्वाक्यं श्रुत्वा स चातुरः ! १४० ।। प्रेषयामास पुत्रं तान्यस्थीन्यानेसुभात्मनः । स जगाभातिवेगेन मृतानां भवनं नृ ।। १४१ ।। बद्धवा तदस्थिचियं बस्त्रेणाच्छाद्य भूपते । नरयादे विनिःक्षिप्य स्वच्छाद्य नृपनन्दनः ।। १४२ ।। तदा शेषगिरिं प्राप्य पितरं वाक्यमब्रवीत् । तदस्थिभण्डलं तात सम्प्राप्तं विद्धि भूपते ।। १४३ ।। श्रीनिवासाथ शान्ताय तदानीतं वदाधुना । स पुत्रवचनं श्रुत्वा श्रीनिवासमभाषत ।। १४४ ।। श्रावेङ्कटेशके इस वचशयो सुनकर उस तुर राजाने उम अस्थियोंको लाने के लिये वपबे पुत्रकौ भेजा । वह भी भरे हुकोंडे वर बहुत वेगसे गषा । हे राजन ! तब अस्थिसमूहको बांधकर, कड़ेसे ढंगकर, मनुष्यों की सयारीीपर अच्छी तरछ् तुककर व राजपुत शेषःचलको पहुँचकर पित्तासे वचन बोला-हे तात ! उस अास्थि-अमूइको आया हुआ उःनिये. हे राजन ! शान्त श्रीनिवास भगवानको उसका आना कहिये । पुतके वचनको सुनकर राजा श्रीनिवाक्षसे बोले । (१४) राजोवाच ---- 'समानीतः पुत्रकेण मृतास्थिचियो हरे । यथा ते जीवितं कृष्ण ! प्राप्नुवन्ति तथा कुरु' ।। १४५ ।।