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7४8 गच्छ त्वदीयं पुरमद्य जन् तस्मै द्विजश्याखिललोकसाक्षिणीम् । भार्था सपुत्रामति भक्तियुक्तो श्रदाय राज्यं त्वभकण्टकं कुरु ।। १५८ ।। श्रो भगवान बोले-३ नृपति ! आपके किये हुए उपकार का सौगुण उपकार (बदला) मैंने जाण किया है; य उपकार मैंने आपके बड़े भाई के प्रेमसे ही किया है ! इसके बाद कलियुग में मैं मौन ग्रण करता हूँ । अकेला होकर किसीके साथ भी मैं साक्षात् बातचीत लहीं करूंगा, दूसरेझे मुखसे ही बोलूंगा ! हे राजम । आप असे नगरको जाइये, अत्यन्त शक्तियुक्त पुत्र साथ उसकी मायको सब मनुष्यों के सभहे उस ब्राह्मणक्रो देझर आप एकङ्कण्टक राज्य कीजिये । (१५८) तोण्डानाज्ञथा स्वावार्स प्रति सकुटुम्बकूर्मद्विजगमनम् इत्युक्तो वासुदेवेन तत्पत्नीसहितो नृपः । गत्वा च नगरं पुत्रसहितः कूर्मभब्रवीत् ।। १५९ ।।

  • भूदेव तब भार्येयं सुपुत्री पुत्रसंयुता ।

सम्प्राप्ता दैवयोगेन तां गृहणीष्व द्विजोत्तम ! ।। १६० ।। इत्युक्त्वा ससुतां पत्नीं स विप्राय न्यवेदयत् । तेण्डमानकी आज्ञासे कुटुम्ब के साथ कूर्म ब्राह्मणक्न धरको जाना वासुदेवसे इस प्रकार कहे जावेपर पुत्रकै साथ वह राजा ब्राह्मणको पक्ष्नी के साथ नगरको जाकर कूर्मसे बोडे-“हे ग्राह्मण ! यह आपकी भाय पुत्रो और पुत्रके साथ दैवयोगसे मिल गयी हैं। हे ब्राह्मण ! इसको ग्रण कीशिये । ऐसा कहकर पुखी सहित पुत्रको उस फ्राह्मणको दिया । (१६०) वृत्तान्तमखिलं ज्ञात्वा पत्या राजमुखाद्द्वजः ।। १६१ ।।