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740 नारायणस्याखिललोकधाम्नां निवासभूतस्य चराचराणाम् । दृष्टं भवद्भिर्जठरे विचित्रं भूगोल मुख्याखिललोकजालम् । त्रिणेत्रमुख्यै: सह चोर्णपूर्णपुण्येरपीदं मनुजैर्न लभ्यम्।।१६७।। इत्येवं संस्तुवन्स्वीयान् पत्नीसुतशिशून्द्विजः । राजानं चापि संस्तुत्य देशं गन्तुं प्रचक्रमे ।। १६८ ।। ऐसा कहे जानेपर वह ब्राह्मण लजाकर पत्नी, पुत्र और बच्चेसे बोला-मेरे जन्म और घोर तपस्थाको धिक्कार है, और वेदके अध्यायनकी भी धिक्कार है । चराचर के निवास भून् एवं सब लोकोंके उrम नारायण के उदर में तुम लीगोंने भूगोल इत्यादि सारे लोकोंके जालको देखा है । पूर्णपुण्यका आधरण किये हुए शिव इत्यादि जीवर शिसे भी छु प्राप्य नहीं है । इस प्रकार अपनी पत्नी, पुत्र और बश्चेकी प्रशंसा करता हुआ वह ब्राह्मण राजाकी भी प्रशंसा करके देश जावे की तैयारी करने लगा । {१६८) राजोवाच 'अहो भाग्यमहो भाग्यं त्वत्पत्नीसुतयोः शिशोः । यद् दृष्टं श्रीनिवासस्य जठरे सर्वमद्भुतम् ।। १६९ ।। इत्युक्तो नृपवर्येण सहभार्यः सुतान्वित जगाम विप्रमुख्योऽसौ रङ्गक्षेत्रं स्वकाश्रमम् ।। १७० ।। श्रीनिवासप्रसादेन तोण्डमान्भक्तिसम्भ्रमात् । स विप्रः सहितः पुत्रभार्याभ्यां भवनं ययौ ।। १७१ ।। राजा बोले-धन्य भाग्य है ! अश्पकी पत्नी, पुत्र और बच्चेका घन्यका wाग्य है । जो उन्होंने श्रीनिवासके उद२में सब अद्भुत को देखा है । उस श्रेष्ठ राजासे ऐसा कहे जानेपर भार्था छौर पुढके साथ वह ब्राह्मण अपने आश्रम रंगक्षेत्रको गया-श्रीनिवासकी प्रसन्नताये तोण्डमानकी भक्ति फल, पुत्र और भार्या के साथ वह ब्राह्मण अपने वरको गया । {१७१)} विसृज्य विप्र भूपालः सकुटुम्बं सपुत्रकम् । दध्यौ चित्रं हरेः कर्ष निग्रहं तस्य चात्मनि ।। १७२ ।।