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58 अनेन पुण्य योगेन भवन्तः क्षीणकल्मषाः । युद्धे जयं तथा राज्यं गमिष्यन्ति क्रमागतम् । तदा प्रभृति तत्तीर्थ पाण्डवं च त्रिदुर्बुधाः ।। २६ ।। पाण्डव तीर्थ माहात्म्य क्लिष्टकर्मा श्री कृष्णजो के उपदेश से पर्वत पर आकर धर्म-पुत्र प्रभृति पाण्डवों ने क्षेत्रपालों से सुरक्षित किसी पुण्य तीर्थ में स्नान, पानादि करते हुए वर्ष भर निवास किया । इसी समय में धर्मराज ने एक अति उत्तम स्वप्न देखा कि तुम लोगों ने इस तीर्थ में वर्ष पर्यन्त निवास किया है अतः तुम्हारे इस पुण्य योग से पाप क्षीण होकर युद्ध में तुम्हें जय तथा क्रमागत राज्य की प्राप्ति होगी । तभी से वह तीर्थ पाण्डव-तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । (२३-२६} जराहरादि तीर्थक्यमाहात्म्यम् जराहरं वलिघ्नं च रसायनमिति त्रिकम् । तीर्थानां वर्तते तस्मिंश्चिन्तामणि गिरौ तथा ।। २७ ।। स्वामिपुष्करिणीपूर्वदेशे पर्वतगह्वरे । द्वाविंशच्छरपाते तु किन्तु माथातिरोहितम् ।। २८ ।। न जानन्ति बुधास्तीर्थ तत्तु विस्मयकारकम् । अष्टानां खनयः सन्ति लोहानां कनकाचले ।। २९ ।। युगभेदेन दृश्यन्ते नराणां पुण्यकर्मणाम् । जराहरादि तीन तीर्थों का माहात्म्य जराहर-लिध्न और रसायन यही तीन, उस चिन्तामणि पर्वत पर पुण्य तीर्थ हैं। ये स्वाभिपुष्करिणी तीर्थ के पूर्वीय भाग के पर्वतगह्वर में बाइस-बाण पात की दूरी पर स्थित है, किन्तु माया के द्वारा छिपे रहने के कारण इन विस्मयकारक तीर्थो को बुद्धिमान लोग नहीं जान सके। कनकाचल में आठ लोहे की खाने हैं, जो पुण्यकारी की हो युगभेद से दिखाई पड़ते हैं। (२७-२९)