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744 को वा पुराणपुरुष ! त्वय्येकान्तरतः सदा । भक्तानामग्रणीश्चाहं दयालूनां त्वमग्रणीः ।। १८९ ।। एवं गर्वोक्तिमाकण्यं तूष्णीमासीद्रमापतिः । ततो भूयोऽतिभक्त्याऽयं पूजयामास माधवम् । सौवर्णरत्नखचिततुलसीकुसुमव्रजैः ।। १९० ।। राया बोले-हे इरि! उपकार करनेवाले पुरुष अपने किये हुए (उपकार) को स्वयं नहीं कहते, गुणसे रहित कौन मूर्ख अपनीकी हुई सेवाको कहता है ? मेरे समान आपका भक्त तीनों लोकमें नहीं है। है पुराण पुरुष ! श्राप सदा सग। हुआ मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन है ? भक्तोंमें आगे हूँ एवं दया करनेवालों में बागे आप हैं। इस प्रकार अभिमानसे भरा हुआ वचन सुनकर लक्ष्मीपति चुप हो गये । पश्चात् अत्यन्त भक्तिसे इन्होंने पुनः रत्न जड़े हुए सुवर्णके तुलसीके फूलके एमूहसे श्रीनिवास की पूजा की । (१९०) कुर्वग्रामस्थमीमाख्यकुलालोदन्तः ततः कदाचिदद्राक्षीत्तोण्डमान्नृपसत्तमः । सौवर्णरत्नखचिततुलसीकुसुमोपरि ।। १९१ ।। संस्थितां मृण्मयीं श्यामा तुलसीकुसुमावलिम् । सौवर्णरत्नखचिततुलसीकुसुमावलिम् । ददर्श मृण्मयीं चैव सुलग्नां हरिपादयोः ।। १९३ ।। श्यामां सुरुचिरामाद्र तुलसीकुसुमावलिम् । दृष्ट्वैव श्रीपतेः स्वामिन्निग्रहं चिन्तयनृपः ।। १९४ ।। मुक्तकण्ठं रुदन्नूचे तोण्डमान् भृशदुःखितः । भगवन् ! क्रूरपापं मामनाथं किमुपेक्षसे ।। १९५ ।।