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केन भक्ताग्रगण्यें स्वीकरोषि समर्पितम् ! मृण्मयीमेव सम्प्रीत्या तुलसीकुसुमावलिम्' ।। १९६ ।। इत्येवमुक्तो भगवांस्तोण्डमानेन वै हरिः । राजानं रभणीयाङ्ग प्रत्यभाषत भूपते ।। १९७ ।। 45 कुवै नामक ग्रामके भीम नामक कुलालकी कथा पश्चात किसी समय उस श्रेष्ठ राजा तोण्डमानते रहनजटित सुवर्णके तुलसीके पतोंपर मिट्टो लिपटी हुई काली तुनधीके फूलोंको देखा । तत्पश्चात किसी समय, कुछ काल बीतनेपर रत्न जड़े हुए सुवर्णको तुलसीको दूर हटायी एवं भिट्टी लिपटी हुई तथा भुन्दर भी गी हुई सुलसीको हॉरके चरणोंपर चढ़ा हुई देखा । हे स्वामी ! यह देखकर ही लक्ष्मीपतिके निग्रह {दण्४) का विचार करते हुए वह राजा तोण्डमान बहुत दुःखी होकर रोते हुए मुक्तकण्ठसे बोले-हे भगवान ! क्रूर एवं पापी मुझ अनाथकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं ? किड श्रेष्ठ भक्तद्वारा सभर्पण की हुई मिट्टी लिपटी हुई तुलसी को प्रीति पूर्वेस आईए स्वीकार करते हैं? हे राजन ! तोंण्डमोनसे इस प्रकार कहे जातेपर श्रीनिवास भगवान सुन्दर अङ्गवाले (१९७) तोण्डमानं प्रति भगवञ्ज्ञापितमीमख्यकुलालोदन्तः श्रीभगवानुवाच भक्ताश्च बहवः सन्ति त्रिगुणास्त्रिविधात्मकाः । तेषां मध्ये दरिद्रोऽस्ति कुचालो भीमनामकः ।। १९८ ।। अत्रैवोत्तरदिग्भागे राजन् योजनदूरतः । स कुलालोऽतिभक्त्यैव भित्तिकाबिलमध्यतः ।। १९ ।। दारुभूतं च मां शूद्रः प्रत्यहं पूजयत्यसौ । स्वस्थः शान्तः स्वकृत्यं च प्रसमाप्य हरिप्रियः ।। २० ।। स्रात्वा विधिवदात्मज्ञो मृण्मयैस्तुलसीसुमैः । तद्भक्त्या परितुष्टेन तदङ्गीक्रियते यया ।। २०१ ।। 25