पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/७६४

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तत्र गत्वा प्रतिदिनं तं दृष्ट्वा तत्प्रियाँ तथा । राजन् बहुविधाः सन्ति मद्भक्ताश्च विरागिण ।। २०२ ।। यदुक्तं तु त्वया पूर्वमेकोऽहं भक्तिमानिति । तद्वचस्त्वदहङ्कारमहोछायविजूम्भितम् ।। २०३ ।। भीम नाभका कुलालकवृत्तांत श्रीनिवास बोले-तीन गुणवाले तीन प्रकारके भक्त बहुतसे हैं । हे राजन ! उनमें भीम नाम एक दरिद्र कुलाल यहाँसे उत्तर दिशामें एक योजन दूरपर है । वह शूद्र कुलाल अपने कृत्यको समाप्त कर स्वस्य, शान्त एवं आत्मज्ञानी होकर, विधिपूर्वक स्नान कर, अत्यन्त शक्ति से मिट्टी क्षिपटी हुई तुलसीके फूलसे भित्तिके विलके द्वारा मुझ दारु रूपकी प्रति दिन पूजा करतः है। उसकी भक्तिडे सन्तुष्ट होकर बहाँ आकए और उसकी क्रियाको देखकर मैं उस अङ्गोशार करता हूँ ! है राजन ! मेरे विरागि अक्त बहुस तरके हैं, तुभने जो पट्टले यह कहा कि एक मैं इी भक्त हैं; यह वचन् अहंकार और गवंसे पूर्ण है : (२०३) तदुक्तभाकण्यं विनम्रमस्तक सान्त्यज्य चत्य तदनु प्रजापतिः । पद्भ्यां जगाभोज्ज्ञितराजगौरव स्तदाऽस्य मार्ग प्रणमन्मुहुर्मुहुः ।। २०४ ।। उसके दचनको सुनकर राज्यके दौरवको छोड़ हुए वह राजा भस्ता नीचे कर धीरे-धीरे प्रणामकर एवं चैत्यको छोड़ष्ठर उस मार्गसे बीच-दीचमें पीछे देखते हुए पैदल गये । (२०४) भीमाख्यकुलालन्गरं प्रति तण्डमानगमनम् तं चक्रवर्तिनं दृष्ट्वा पद्भ्यां धावन्तपातुरम् । पृच्छन्तं तस्य भवनं परितो घटकारिणः ।। २०५ ।। प्राहुस्तं भगवद्भक्तं कुलालं मार्गवर्तिनः । 'वसत्यत्रैव राजन् ! स कुलालो भीमनामकः ।। २०६ ।। भक्तिर्यस्य हरौ कृष्णसेवां नित्यं करोति यः' ।