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750 'इत एही'ति सम्भाष्य समीपं परमात्मनः । स नत्वा शिरसा देवं प्रत्यभाषत भाधवम् !: २२३ ।। इस प्रकार कहे जातेपर गरुड़ जल्दीसे उस शूद्रके पुत्रको -“ यहाँ झाडो ऐसा कहकर ले वाये। भगवान के पास आकर वह कुलाल भगवानको शिरसे प्रणामकर तलसे बोला ! 'किमर्थमागमो देव ! गृहं मे शूद्रजन्मनः । न चाहं विदुरो देवो न चाहं शबरी प्रभो ।। २२४ !। (२२३) न चाहं गजराजेन्द्रो ! न चोद्धविभीपणौ । किं देयमस्ति मद्गेहे त्वदर्थ पुरुषोत्तम' ।। २२५ ।। कुलाल बोला-हे देव! मुझ कुलाल जातिके घर में आपका आना िसलिए हुआ ? हे देव ! न तो मैं विदूर हूँ, न शश्रौ हूँ, न गजेन्द्र हूँ, और न उद्धव । विभीषण ही हूँ, हे पुरुषोत्तम ! आपको देसेके योग्य मेरे धरमें क्या है? (२५) वदत्येवं कुलाले तु तस्य पत्नी तमालिनी । प्रासादयच्च गोविन्दं द्रौपदीव जनार्दनम् ।। २२६ ।। कुलालके इस प्रकार कहते ही उसकी पत्नी तभालिली गोविन्दको प्रसन्न करते {२२६) तमालिन्युवाच 'अनाथनाथ गोविन्द ! बुद्धिस्त्वय्येव वर्तते । न जाने मन्त्रमार्ग तु न जाने कृर्मनिर्णयम् ।। २२७ ।। अशौचकुलजातानां कुतो वेदः कुतस्तपः । भक्त्या मे परितुष्टः सन्मद्भर्तुश्च विशेषतः ।। २२८ ।।